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________________ १८८२ प. जीवस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविनेरइयत्ते णो रयणप्पभापुढविनेरइयत्ते पुणरवि रयणप्पभापुढवीनेरइयत्ते रयणप्पभापुढवीनेरइय वेउव्वियसरीरप्पयोग बंधंतरं कालओ केवचिर होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तममहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। देसबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो। एवं जाव अहेसत्तमाए, णवरं-जा जस्स ठिई जहणिया सा सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुत्तममहिया कायव्वा, सेसंतंचेव। पंचिंदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्साणं जहा वाउक्काइयाणं। असुर-नागकुमार जाव सहस्सारदेवाणं एएसिं जहा रयणप्पभायाणं, णवर-सव्वबंधंतरं जस्स जा ठिई जहणिया सा अंतोमुत्तमब्भहिया कायव्वा, सेसंतं चेव। प. जीवस्स णं भंते ! आणयदेवत्ते नो आणयदेवत्ते पुणरवि आणयदेवत्ते आणयदेव वेउव्विय सरीरप्पयोग बंधंतरं कालओ केवचिरं होइ? द्रव्यानुयोग-(३) प्र. भंते ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक रूप में रहा हुआ जीव (वहाँ से मर कर) रत्नप्रभापृथ्वी के सिवाय अन्य स्थानों में उत्पन्न हो और वहाँ से मर कर पुनः रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक के रूप में उत्पन्न हो तो उसके वैक्रिय शरीरप्रयोग बन्ध का अन्तर काल कितने काल का होता है? उ. गौतम ! उसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) का होता है। देशबन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) का होता है। इसी प्रकार अधःसप्तम नरकपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-जिस नैरयिक की जो जघन्य स्थिति हो, उससे अन्तर्मुहूर्त अधिक सर्वबन्ध का जघन्य अन्तर जानना चाहिए। शेष कथन पूर्ववत् है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों और मनुष्यों के बन्ध का अन्तर वायुकायिक के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार असुरकुमार, नागकुमारों से सहनार देवों पर्यन्त के वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर रत्नप्रभापृथ्वीनैरयिकों के समान जानना चाहिए। विशेष-जिसकी जो जघन्य स्थिति हो, उसके सर्वबन्ध का अन्तर उससे अन्तर्मुहूर्त अधिक जानना चाहिए। शेष सारा कथन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। प्र. भंते ! आनत देवलोक में देवरूप से उत्पन्न कोई देव (वहाँ से च्यव कर) आनतदेवलोक के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाए, फिर वहाँ से मर कर पुनः आनत देव लोक में देवरूप से उत्पन्न हो तो उस आनतदेव के वैक्रिय शरीर प्रयोगबन्ध का अन्तर काल कितने काल का होता है? उ. गौतम ! उसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम का और उत्कृष्ट अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) का होता है। देशबन्ध का अन्तर काल जघन्य वर्ष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) का होता है। इसी प्रकार अच्युत देवलोक पर्यन्त के देवों का अन्तर जानना चाहिए। विशेष-जिसकी जितनी जघन्य स्थिति हो, सर्वबन्धान्तर में उससे वर्ष-पृथक्त्व अधिक समझना चाहिए। शेष सारा कथन पूर्ववत् जान लेना चाहिए। प. भंते ! ग्रैवेयककल्पातीत रूप में उत्पन्न कोई देव (वहाँ से च्यव कर) ग्रैवेयक कल्पातीतदेवलोक के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाए फिर वहाँ से मरकर पुनः ग्रैवेयककल्पातीतदेवलोक में देवरूप से उत्पन्न हो तो उस ग्रैवेयककल्पातीत वैक्रिय-शरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर काल कितने काल का होता है? उ. गौतम ! सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः वर्ष-पृथक्त्व अधिक बावीस सागरोपम का और उत्कृष्ट अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) का होता है। उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अट्ठारससागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं, वणस्सइकालो। देसबंधतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतंकालं वणस्सइकालो। एवं जाव अच्चुए, णवर-जस्स जा ठिई सा सव्वबंधतरं जहण्णेणं वासपुहत्तमब्भहिया कायव्वा, सेसंतं चेव। प. जीवस्सणं भंते ! गेवेज्जकप्पातीयत्ते नो गेवेज्जकप्पातीयत्ते पुणरवि गेवेज्जकप्पातीयत्ते गेवेज्जकप्पातीय-वेउव्विय-सरीरप्पयोगबंधंतरं कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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