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________________ १८८१ पुद्गल अध्ययन णवरं-देसबंधे जस्स जा जहन्निया ठिई सा तिसमयूणा कायव्वा, जा च उक्कोसिया सा समयूणा। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य जहा वाउक्काइयाणं। असुरकुमार-नागकुमार जाव अणुत्तरोववाइयाणं जहा नेरइयाणं, णवरं-जस्स जा ठिई सा भाणियव्वा जाव अणुत्तरोववाइयाणं सव्वबंधे एक्कं समयं, विशेष-जिसकी जितनी जघन्य (आयु) स्थिति हो, उसमें तीन समय कम जघन्य देशबन्ध तथा जिसकी जितनी उत्कृष्ट (आयु) स्थिति हो, उसमें एक समय कम उत्कृष्ट देशबन्ध जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों का कथन वायुकायिक के समान जानना चाहिए। असुरकुमार नागकुमारों से अनुत्तरोपपातिक देवों पर्यन्त का कथन नैरयिक के समान जानना चाहिए। विशेष-जिसकी जितनी स्थिति हो उतनी कहनी चाहिए, अनुत्तरोपपातिक देवों पर्यन्त का सर्वबन्ध एक समय तक होता है। देशबन्ध जघन्य तीन समय कम इकतीस सागरोपम और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीस सागरोपम तक का होता है। देसबंधे एक्कतीसं सागरोवमाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई। -विया. स.८, उ.९, सु.६६-७0 १२०. वेउव्वियसरीरप्पयोग बंधंतर काल परूवणं प. वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधंतरंणं भंते ! कालओ केवचिरं का होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अणतंकालं, अणंताओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो। एवं देसबंधंतरं पि। प. वाउक्काइय-वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं। एवं देसबंधंतरं पि। प. तिरिक्खजोणिय-पंचिंदिय-वेउब्वियसरीर प्पयोगबंधंतरंणं भंते ! कालओ केवचिर होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडीपुहत्तं। एवं देसबंधंतरं पि। एवं मणूसस्स वि। -विया. स.८,उ.९,सु.७१-७४ १२०. वैक्रियशरीर प्रयोग बन्ध के अन्तर काल का प्ररूपण प्र. भंते ! वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर काल कितने काल का होता है? उ. गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल है। अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी यावत् आवलिका के असंख्यातवें भाग के समयों के बराबर जानना चाहिए। इसी प्रकार देश बन्ध का अन्तर भी जान लेना चाहिए। प्र. भंते ! वायुकायिक वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर (स्वकाय की अपेक्षा) काल कितने काल का होता है? उ. गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर (स्वकाय की अपेक्षा) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवें भाग होता है। इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जान लेना चाहिए। प्र. भंते ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का __ अन्तर काल कितने काल का होता है? उ. गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व का होता है। इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जान लेना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी (पूर्ववत्) जान लेना चाहिए। १२१. पुनः वैक्रिय शरीर प्राप्त करने वालों के वैक्रिय शरीरप्रयोगबंध के अन्तर काल का प्ररूपणप्र. भंते ! वायुकायिक अवस्थागत जीव (वहाँ से मर कर) वायुकायिक के सिवाय अन्यकाय.में उत्पन्न होकर रहे और फिर वह वहाँ से मर कर पुनः वायुकायिक जीवों में उत्पन्न हो तो उसके वायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर- प्रयोग बन्ध का अन्तर काल कितने काल का होता है? उ. गौतम ! उसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) तक होता है। इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जान लेना चाहिए। १२१. पुणरवि वेउव्वियसरीरपावगाणं वेउव्वियसरीरप्पयोग बंधंतरं काल परूवणंप. जीवस्स णं भंते ! वाउकाइयत्ते नो वाउकाइयत्ते पुणरवि वा वाउकाइयत्ते वाउकाइय-एगिंदिय-वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणतंकालं वणस्सइकालो। एवं देसबंधंतरं पि।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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