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________________ १८७३ पुद्गल अध्ययन १. अणाईए वा अप्पज्जवसिए, २. साईए वा अपज्जवसिए, ३. साईए वा सपज्जवसिए। १. तत्थ णं जे से अणाईए अपज्जवसिए से णं अट्ठण्हं जीवमज्झपएसाणं। तत्थ वि णं तिण्हं-तिण्हं अणाईए अपज्जवसिए, सेसाणं साईए। २. तत्थ णं जे से साईए अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं, ३. तत्थ णं जे से साईए सपज्जवसिए से णं चउबिहे पण्णत्ते,तं जहा१. आलावणबंधे, २. अल्लियावणबंधे, ३. सरीरबंधे, ४. सरीरप्पयोगबंधे। प. से किं तं आलावणबंधे? उ. आलावणबंधे, जंणं तणभाराण वा, कट्ठभाराण वा, पत्तभाराण वा, पलालभाराण वा, वेल्लभाराण वा वेत्तलया-वाग-वरत्त-रज्ज-वल्लि-कुस-दब्भमादिएहिं आलावणबंधे समुप्पज्जइ, से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं। १. अनादि-अपर्यवसित, २. सादि-अपर्यवसित, ३. सादि-सपर्यवसित, १. इनमें से जो अनादि-अपर्यवसित है, वह जीव के आठ मध्यप्रदेशों का होता है। उनमें भी तीन-तीन प्रदेशों का अनादि-अपर्यवसित बन्ध है, शेष का सादि (अपर्यवसित) बन्ध है। २. इन तीनों में जो सादि-अपर्यवसित बन्ध है वह सिद्धों का होता है। ३. सादि-सपर्यवसित बन्ध है, वह चार प्रकार का कहा गया है, यथा१. आलापन बन्ध, २. अल्लिकापन बन्ध, ३. शरीर बन्ध, ४. शरीर प्रयोग बन्ध। प्र. १. भंते ! आलापनबन्ध किसे कहते हैं ? उ. गौतम ! तृण (घास), काष्ठ, पत्तों, पलाल और बेल के भारों को, बेत की लता, छाल, वस्त्रा (चमड़े की बनी मोटी रस्सी) रज्जु (रस्सी), बेल, कुश और डाभ (नारियल की जटा) आदि से बाँधने को आलापनबन्ध कहते हैं। यह बन्ध जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है। यह आलापनबन्ध का स्वरूप है। प्र. २. अल्लिकापन बन्ध किसे कहते हैं ? उ. गौतम ! अल्लिकापन बन्ध चार प्रकार का कहा गया है, यथा१. श्लेषणाबन्ध, २. उच्चयबन्ध, ३. समुच्चयबन्ध, ४. संहननबन्ध। प्र. १. भंते ! श्लेषणाबन्ध किसे कहते हैं ? उ. गौतम ! कुड्यों (भित्तियों), कुट्टियों (आंगन के फर्श), स्तम्भों, प्रासादों, काष्ठों, चर्मों (चमड़ों), घड़ों, वस्त्रों और चटाईयों (कटों) को, चूना कीचड़ श्लेष (लेप) लाख, मोम आदि द्रव्यों से चिपकाने को श्लेषणाबन्ध कहते हैं। यह बन्ध जधन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है। यह श्लेषणाबन्ध का स्वरूप है। प्र. २. भंते ! उच्चयबन्ध किसे कहते हैं ? उ. गौतम ! तृणराशि (ढेर), काष्ठराशि, पत्रराशि, तुषराशि, भुसराशि, गोमयराशि और उकरड़े के ऊँचे ढेर लगाने को उच्चयबन्ध कहते हैं। सेत्तं आलावणबंधे। प. से किं तं अल्लियावणबंधे? उ. अल्लियावणबंधे चउविहे पण्णत्ते,तं जहा १. लेसणाबंधे, २. उच्चयबंधे, ३. समुच्चयबंधे, ४. साहण्णबंधे। प. से किं तं लेसणाबंधे? उ. लेसणाबंधे, जंणं कुड्डाणं कुट्टिमाणं खंधाणं पासायाणं कट्ठाणं चम्माणं घडाणं पडाणं कडाणं छुहा-चिक्खल्लसिलेस लक्ख-महुसित्थमाइएहिं लेसणएहिं बंधे समुप्पज्जइ, से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं, से तं लेसणाबंधे। प. से किं त्तं उच्चयबंधे? उ. उच्चयबंधे, जं णं तणरासीण वा, कट्ठरासीण वा, पत्तरासीण वा, तुसरासीण वा, भुसरासीण वा, गोमयरासीण वा, अवगररासीण वा उच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ, से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं, सेत्तं उच्चयबंधे। प. से किं तं समुच्चयबंधे? यह बन्ध जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है। यह उच्चयबन्ध का स्वरूप है। प्र. ३. भंते ! समुच्चयबन्ध किसे कहते हैं ?
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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