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________________ १८२३ पुद्गल अध्ययन दससमयठिईया पोग्गला अणंता पण्णत्ता, दसगुणकालगा पोग्गला अणंता पण्णत्ता, एवं वण्णेहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहिं जाव दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। -ठाणं.अ.१० सु.७८३ ५२. एगम्मि आगासपएसे ठिय पोग्गलाणं चिज्जाइ परूवणं- . प. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कतिदिसिं पोग्गला चिज्जति? उ. गोयमा ! निव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं पोग्गला चिज्जति। प. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कतिदिसिं पोग्गला भिज्जंति? उ. गोयमा ! एवं चेव। एवं उवचिज्जंति, एवं अवचिज्जंति। -विया. स. २५, उ. २, सु.४-१० ५३. दव्वाइआदेसेहिं सव्व पोग्गलाणं सिय सअड्ढ सपएसाइ परूवणंतेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी नारयपुत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए जाव विहरइ, दस समय की स्थिति वाले पुद्गल अनन्त कहे गए हैं। दस गुण कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल अनन्त कहे गए हैं। इसी प्रकार शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पों के दस गुण रुक्ष स्पर्श पर्यन्त पुद्गल अनन्त कहे गए हैं। ५२. एक आकाशप्रदेश में स्थित पुद्गलों के चयादि का प्ररूपणप्र. भंते ! लोक के एक आकाशप्रदेश में कितनी दिशाओं से आकर पुद्गल एकत्रित होते हैं ? उ. गौतम ! निर्व्याघात से (व्यवधान न हो तो) छहों दिशाओं से तथा व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से आकर पुद्गल एकत्रित होते हैं। प्र. भंते ! लोक के एक आकाशप्रदेश में स्थित पुद्गल कितनी दिशाओं से पृथक् होते हैं? उ. गौतम ! पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी प्रकार स्कन्धों के उपचय (मिलना) और अपचय (बिछुड़ना) के लिए जानना चाहिए। ५३. द्रव्यादि आदेशों द्वारा सर्वपुद्गलों के सार्द्ध सप्रदेशादि का प्ररूपणउस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अन्तेवासी प्रकृतिभद्र आदि गुणयुक्त नारदपुत्र नाम के अनगार यावत् विचरण करते थे। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी प्रकृतिभद्र आदि गुणयुक्त निर्ग्रन्थीपुत्र नामक अणगार यावत् विचरण करते थे। एक बार निर्ग्रन्थीपुत्र अणगार जहाँ नारदपुत्र नामक अणगार थे वहां आए और उनके पास आकर उन्होंने नारदपुत्र अणगार से इस प्रकार पूछा"हे आर्य ! तुम्हारे मतानुसार सब पुद्गल क्या सार्द्ध समध्य और सप्रदेश हैं अथवा अनर्द्ध अमध्य और अप्रदेश हैं?" "हे आर्य !" इस प्रकार सम्बोधित कर नारदपुत्र अणगार ने निर्ग्रन्थीपुत्र अणगार से इस प्रकार कहा"हे आर्य ! मेरे मतानुसार सभी पुद्गल सार्द्ध,समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्द्ध अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं।" तब निर्ग्रन्थीपुत्र अणगार ने नारदपुत्र अणगार से इस प्रकार कहा तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी नियंठिपुत्ते णामं अणगारे पगइभद्दए जाव विहरइ, तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे जेणामेव नारयपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता नारयपुत्तं णामं अणगारे एवं वयासी"सव्वपोग्गला ते अज्जो ! किं सअड्ढा, समज्झा, सपएसा, उदाहु अणड्ढा अमज्झा अपएसा?" 'अज्जो'! त्ति नारयपुत्ते अणगारं नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वयासी"सव्वपोग्गला मे अज्जो ! सअड्ढा समज्झा सपदेसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपदेसा," तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी"जइणं ते अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपदेसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपदेसा। किं दव्वादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपदेसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपदेसा? खेत्तादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपदेसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपदेसा? कालादेसेण विभावादेसेण वितंचेव।" "हे आर्य ! यदि तुम्हारे मतानुसार सभी पुद्गल सार्द्ध,समध्य और सप्रदेश हैं किन्तु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं तोहे आर्य ! क्या द्रव्य की अपेक्षा सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्द्ध अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं ? हे आर्य! क्या क्षेत्र की अपेक्षा सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्द्ध अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं ? काल की अपेक्षा और भाव की अपेक्षा भी क्या सभी पुद्गल उसी प्रकार हैं?" तब नारदपुत्र अणगार ने निग्रन्थीपुत्र अणगार से इस प्रकार कहा तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वयासी
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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