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________________ १८२४ द्रव्यानुयोग-(३)) "हे आर्य ! मेरे मतानुसार द्रव्य की अपेक्षा सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्द्ध अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं। क्षेत्र की अपेक्षा भी सभी पुद्गल उसी प्रकार हैं। काल की अपेक्षा और भाव की अपेक्षा भी उसी प्रकार हैं।" तब निर्ग्रन्थीपुत्र अणगार ने नारदपुत्र अणगार से इस प्रकार कहा “दव्वादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा।" खेत्तादेसेण वि सव्वपोग्गला एवं चेव, कालादेसेण विभावादेसेण विएवं चेवा" तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगार एवं वयासी"जइ णं अज्जो ! दव्वादेसेणं-सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा, एवं ते परमाणुपोग्गले वि सअड्ढे समज्झे सपएसे, णो अणड्ढे अमज्झे अपएसे? जइ णं अज्जो ! खेत्तादेसेण वि सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा,णो अणडूढा अमज्झा अपएसाएवं ते एगपएसोगाढे वि पोग्गले सअड्ढे समज्झे सपएसे? जइ णं अज्जो ! कालादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा, एवं ते एगसमयठिईए वि पोग्गले सअड्ढे समज्झे सपएसे तं चेव? जइ णं अज्जो ! भावादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा, एवं ते एगगुणकालए वि पोग्गले सअड्ढे समज्झे सपएसे तं चेव? अह ते एवं न भवइ तो जं वयसि दव्वादेसेण वि सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा, "हे आर्य ! यदि द्रव्य की अपेक्षा सभी पुद्गल सार्द्ध समध्य और सप्रदेश हैं किन्तु अनर्द्ध अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं तोक्या परमाणु पुद्गल भी इसी प्रकार सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं ? हे आर्य ! यदि क्षेत्र की अपेक्षा भी सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं किन्तु अनर्द्ध अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं तोएक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल भी सार्द्ध, समध्य एवं सप्रदेश होगा? हे आर्य ! यदि काल की अपेक्षा भी सभी पुद्गल सार्द्ध,समध्य और सप्रदेश हैं तो एक समय की स्थिति वाला पुद्गल भी सार्द्ध, समध्य एवं सप्रदेश होगा? हे आर्य ! इसी प्रकार भावादेश से भी सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं तो एक गुण काला पुद्गल भी सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश होगा? यदि ऐसा नहीं है तो फिर आपने जो यह कहा कि द्रव्य की अपेक्षा भी सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्द्ध अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं। क्षेत्रादेश से भी उसी तरह हैं, कालादेश से और भावादेश से भी उसी तरह हैं तो यह कथन मिथ्या है।" तब नारदपुत्र अणगार से निर्ग्रन्थीपुत्र अणगार ने इस प्रकार कहा एवं खेत्तादेसेण वि, कालादेसेण वि, भावादेसेण वि 'तं ण मिच्छा'।" तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वयासी"नो खलु एवं देवाणुप्पिआ ! एयमद्रं जाणामो पासामो, जइणं देवाणुप्पिआ ! नो गिलायंति परिकहित्तए तं इच्छामि णं देवाणुप्पिआणं अंतिए एयमळं सोच्चा निसम्म जाणित्तए," तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी'दव्वादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वपोग्गला सपदेसा वि अपदेसा वि अणंता, खेत्तादेसेण वि एवं चेव, कालादेसेण वि, भावादेसेण वि एव चेव। जे दव्वओ अपदेसे से खेत्तओ नियमा अपदेसे, "हे देवानुप्रिय ! निश्चय ही हम इस अर्थ को नहीं जानते देखते? हे देवानुप्रिय ! यदि आपको इसका अर्थ स्पष्ट करने में संकोच न हो तो मैं आप देवानुप्रिय से इस अर्थ को सुनकर, अवधारणपूर्वक जानना चाहता हूँ।" इस पर निर्ग्रन्थीपुत्र अणगार ने नारदपुत्र अणगार से इस प्रकार कहा'हे आर्य ! मेरी धारणानुसार द्रव्य की अपेक्षा पुद्गल सप्रदेश भी हैं, अप्रदेश भी हैं और अनन्त भी हैं। क्षेत्रादेश से भी इसी तरह हैं, कालादेश से तथा भावादेश से भी इसी तरह हैं। जो पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अप्रदेश हैं, वे क्षेत्र की अपेक्षा भी निश्चितरूप से अप्रदेश हैं। काल की अपेक्षा कदाचित् सप्रदेश और अप्रदेश हैं। भाव की अपेक्षा कदाचित् सप्रदेश और अप्रदेश हैं। जो पुद्गल क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेश हैं, उसमें कदाचित् द्रव्य की अपेक्षा सप्रदेश और अप्रदेश हैं। काल की अपेक्षा और भाव की अपेक्षा से भी इसी प्रकार की भजना जाननी चाहिए। कालओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे, भावओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे। जे खेत्तओ अपदेसे से दव्वओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे। कालओभयणाए,भावओभयणाए।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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