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________________ १७२६ द्रव्यानुयोग-(३) उ. गोयमा ! अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा १.रयणप्पभा, २. सक्करप्पभा, ३. वालुयप्पभा, ४. पंकप्पभा, ५. धूमप्पभा, ६. तमप्पभा, ७. तमतमप्पभा, ८. ईसीपब्भारा। प. इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं चरिमा, अचरिमा, चरिमाइं,अचरिमाइं, चरिमंतपदेसा, अचरिमंतपदेसा? उ. गोयमा ! इमाणं रयणप्पभापुढवी नो चरिमा, नो अचरिमा, नो चरिमाइं, नो अचरिमाइं, नो चरिमंतपदेसा, नो अचरिमंतपदेसा, णियमा अचरिमं च चरिमाणि य, चरिमंतपएसा य, अचरिमंतपएसा य। उ. गौतम ! आठ पृथ्वियां कही गई हैं, यथा १. रत्नप्रभा, २. शर्कराप्रभा, ३. बालुकाप्रभा, ४. पंकप्रभा, ५. धूमप्रभा, ६. तमःप्रभा, ७. तमस्तमः प्रभा, ८. ईषयाग्भारा। प्र. भन्ते ! क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी (एक वचन की अपेक्षा) चरम है या अचरम है, (बहुवचन की अपेक्षा) चरम है या अचरम है तथा चरमान्त प्रदेशों वाली है या अचरमान्त प्रदेशों वाली है? उ. गौतम ! वह रत्नप्रभापृथ्वी (एक वचन की अपेक्षा) न चरम है और न अचरम है, (बहुवचन की अपेक्षा) न चरम है और न अचरम है। न चरमान्त प्रदेशों वाली है और न अचरमान्त प्रदेशों वाली है, नियमतः (एक वचन की अपेक्षा) अचरम है और (बहुवचन की अपेक्षा) चरम है तथा चरमान्त प्रदेशों वाली है और अचरमान्त प्रदेशों वाली है। इसी प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। सौधर्मादि से अनुत्तर विमान पर्यन्त भी इसी प्रकार है। ईषयाग्भारापृथ्वी के लिए भी इसी प्रकार कहना चाहिए। लोक और अलोक के लिए भी इसी प्रकार कहना चाहिए। एवं जाव अहेसत्तमा पुढवी, सोहम्माई जाव अणुत्तरविमाणा एवं चेव। ईसीपब्भारा वि एवं चेव। लोगे वि एवं चेवा एवं अलोगे वि।' -पण्ण.प.१०,सु.७७४-७७६ ११. चरिमाचरिमाणं कायट्टिई परूवणं प. चरिमे णं भंते ! चरिमे त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! अणाईए सपज्जवसिए। प. अचरिमेणं भंते ! अचरिमे त्ति कालओ केवचिरं होइ? ११. चरमाचरम की कायस्थिति का प्ररूपण प्र. भन्ते ! चरमजीव कितने काल तक चरम अवस्था में रहता है ? उ. गौतम (वह) अनादि-सपर्यवसित काल तक रहता है। प्र. भन्ते ! अचरमजीव कितने काल तक अचरम अवस्था में रहता है? उ. गौतम ! अचरम दो प्रकार का कहा गया है, यथा १. अनादि-अपर्यवसित, २. सादि-अपर्यवसित। उ. गोयमा ! अचरिमे दुविहे पण्णत्ते,तं जहा १. अणाईए वा अपज्जवसिए, २. साईए वा अपज्जवसिए।२ -पण्ण.प.१८,सु.१३९७-१३९८ १. (क) पृथ्वियों के चरमाचरम का अल्पबहुत्व गणि.पृ.६ पर देखें। (ख) अलोक आदि के चरमाचरम का अल्पबहुत्व गणि.पृ.७४३-७४५ पर देखें। २. जीवा. पडि.९, सु.२३६
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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