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________________ चरमाचरम अध्ययन १७२५ २०.सिय चरिमे य अचरिमेय अवत्तव्वयाई च, २०. कथंचित् (एक वचन से) चरम, अचरम और (बहुवचन से) अवक्तव्य है, २१. कथंचित् (एक वचन से) चरम (बहुवचन से) अचरम और (एक वचन से) अवक्तव्य है, २१.सिय चरिमे य अचरिमाइंच बनना अवत्तव्वए य, २२.सिय चरिमे य अचरिमाइंच अवत्तव्वयाइंच, २२. कथंचित् (एक वचन से) चरम (बहुवचन से) अचरम और अवक्तव्य है, २३.सिय चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्वए य, HARP २३. कथंचित् (बहुवचन से) चरम और (एक वचन से) अचरम तथा अवक्तव्य है, २४. कथंचित् (बहुवचन से) चरम (एक वचन से) अचरम और (बहुवचन से) अवक्तव्य है, २४.सिय चरिमाइंच अचरिमे य अवत्तव्वयाइंच, २५.सिय चरिमाइं च अचरिमाइंच अवत्तव्वएय, २५. कथंचित् (बहुवचन से) चरम और अचरम है तथा (एक वचन से) अवक्तव्य है, २६.सिय चरिमाइं च अचरिमाइंच अवत्तव्वयाइं च। polo संखेज्जपएसिए असंखेज्जपएसिए अणंतपएसिए खंधे जहेव अट्ठपएसिए तहेव पत्तेयं भाणियव्वं। संगहणी गाहाओपरमाणुम्मि य तइओ, पढमो तइओ य होइ दुपएसे। पढमो तइओ नवमो एक्कारसमो य तिपएसे ॥१॥ पढमो तइओ नवमो दसमो एक्कारसो य बारसमो। भंगा चउप्पएसे तेवीसइमो य बोद्धव्वो।।२।। पढमो तइओ सत्तम नव दस एक्कार बार तेरसमो। तेईस चउव्वीसो पणवीसइमो य पंचमए॥३॥ २६. कथंचित् (बहुवचन से) चरम, अचरम और अवक्तव्य है। संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी प्रत्येक स्कन्ध के लिए अष्टप्रदेशी स्कन्ध के समान कहना चाहिए। संग्रहणी गाथाओं का अर्थपरमाणुपुद्गल में तृतीय भंग होता है। द्विप्रदेशी स्कन्ध में प्रथम और तृतीय भंग होता है। त्रिप्रदेशी स्कन्ध में पहला, तीसरा, नौवां और ग्यारहवां भंग होता है॥१॥ चतुःप्रदेशी स्कन्ध में पहला, तीसरा, नौवां, दसवाँ, ग्यारहवा, बारहवां और तेईसवां भंग समझना चाहिए। ॥२॥ पंच प्रदेशी स्कन्ध में प्रथम, तृतीय, सप्तम, नवम, दशम, एकादश, द्वादश , त्रयोदश, तेईसवां, चौबीसवां और पच्चीसवां भंग जानना चाहिए ॥३॥ षट्प्रदेशी स्कन्ध में दूसरा, चौथा, पांचवा, छठा, पन्द्रहवां, सोलहवां, सत्रहवां, अठारहवां, बीसवां, इक्कीसवां और बाईसवां भंग छोड़कर शेष भंग कहने चाहिए॥४॥ सप्तप्रदेशी स्कन्ध में दूसरे, चौथे, पांचवें, छठे, पन्द्रहवें, सोलहवें, सत्रहवें,अठारहवें और बाईसवें भंग के सिवाय शेष भंग होते हैं ॥५॥ शेष सब स्कन्धों (अष्टप्रदेशी से लेकर संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों) में दूसरे, चौथे, पांचवे, छठे, पन्द्रहवें, सोलहवें, सत्रहवें, अठारहवें भंग को छोड़कर शेष भंग होते हैं ॥६॥ १०. आठ पृथ्वीयों और लोकालोक के चरमाचरमत्व का प्ररूपणप्र. भन्ते ! पृथ्वीयां कितनी कही गई हैं ? बि चउत्थ पंच छ? पणरस सोलं च सत्तरट्ठारं। वीसेक्कवीस बावीसगं च वज्जेज्ज छट्ठम्मि॥४॥ बि चउत्थ पंच छट्ठ पण्णरस सोलं च सत्तरट्ठारं। बावीसइमविहूणा सत्तपएसम्मि खंधम्मि ॥५॥ बि चउत्थ पंच मुटुं पण्णरससोलं च सत्तरट्ठारं। एए वज्जिए भंगा सेसा सेसेसु खंधेसु ॥६॥ -पण्ण. प.१०,सु.७८१-७९० १०. अट्ठ पुढवीणं लोगालोगस्स यचरिमा चरिमत्त परूवणं प. कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ?
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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