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________________ अजीव-द्रव्य अध्ययन : आमुख संसार में मुख्यतः दो ही द्रव्य हैं-१. जीव द्रव्य और २. अजीव द्रव्य। षड्द्रव्यों में से जीव को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल की गणना अजीव द्रव्य में की जाती है। जीव द्रव्य चेतनायुक्त होता है, उसमें ज्ञान एवं दर्शन गुण रहते हैं, जबकि अजीव द्रव्य चेतनाशून्य होता है तथा वह ज्ञान-दर्शन गुणों से रहित होता है। जीव द्रव्य उपयोगमय होता है, जबकि अजीव द्रव्य में उपयोग नहीं पाया जाता। जीव एवं अजीव की भेदक रेखाएँ अनेक हैं, किन्तु मुख्यतः ज्ञान, दर्शन, उपयोग एवं चैतन्य के आधार पर इन्हें विभक्त या पृथक् किया जाता है। ___अजीव द्रव्य भी दो प्रकार के होते हैं-१. रूपी अजीव द्रव्य और २. अरूपी अजीव द्रव्य। जो द्रव्य वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान (आकृति) से युक्त होते हैं वे रूपी अजीव द्रव्य कहलाते हैं तथा जो अजीव द्रव्य वर्णादि से रहित होते हैं वे अरूपी अजीव द्रव्य कहे जाते हैं। अरूपी अजीव द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल द्रव्य की गणना होती है तथा रूपी अजीव द्रव्य की कोटि में मात्र पुद्गल द्रव्य का समावेश होता है। पुद्गल द्रव्य में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान पाया जाता है इसलिए यह रूपी कहलाता है तथा शेष धर्म आदि चार अजीव द्रव्यों में वर्णादि नहीं पाए जाते इसलिए वे अरूपी कहे जाते हैं। अरूपी अजीव द्रव्य के किसी अपेक्षा से १० भेद भी होते हैं, यथा-१. धर्मास्तिकाय, २. उसका देश, ३. उसका प्रदेश, ४. अधर्मास्तिकाय, ५. उसका देश, ६. उसका प्रदेश, ७. आकाशास्तिकाय, ८. उसका देश, ९. उसका प्रदेश और १०. अद्धा काल। धर्मास्तिकाय आदि तीन द्रव्यों के यद्यपि पुद्गल की भाँति खण्ड नहीं किये जा सकते, ये अखण्ड रूप में रहते हैं तथापि अनेकान्त दृष्टि से इनका भेद समझा जाता है। धर्म, अधर्म एवं आकाश द्रव्य अखण्ड हैं तथापि विभिन्न अपेक्षाओं से इनके देश एवं प्रदेशों की चर्चा की जाती है। काल एक ऐसा द्रव्य है जो देश, प्रदेश आदि के खण्डों में भी विभक्त नहीं होता। समय, आवलिका, अन्तर्मुहूर्त, मुहूर्त, दिनं, पक्ष, मास, वर्ष, पल्योपम आदि के रूप में काल का जो विभाजन किया जाता है वह व्यवहार की अपेक्षा से है। इसी प्रकार भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यत्काल के रूप में जो काल-भेद है वह भी व्यवहार काल की अपेक्षा से है, परमार्थतः नहीं। रूपी अजीव द्रव्य 'पुद्गल' चार प्रकार का होता है-१. स्कन्ध, २. स्कन्ध देश, ३. स्कन्ध प्रदेश और ४. परमाणु अनेक परमाणुओं का संघात स्कन्ध कहलाता है। पुद्गल द्रव्य का वह प्रत्येक खण्ड जो स्वतन्त्र सत्तावान् है वह स्कन्ध है। इस प्रकार दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएँ, यथाकुर्सी, ईंट, पत्थर, पेन आदि स्कन्ध के ही रूप हैं। एक से अधिक स्कन्ध मिलकर भी एक नया स्कन्ध बन सकता है। स्कन्ध का जब विभाजन होता है तो वह अनेक परमाणुओं के रूप में बिखर सकता है, किन्तु जब तक परमाणु की अवस्था नहीं आती तब तक वह स्कन्धों में ही विभक्त होता है। इस प्रकार स्वतन्त्र सत्ता की दृष्टि से स्कन्ध एवं परमाणु भेद ही उपलब्ध होते हैं। देश एवं प्रदेश बुद्धि परिकल्पित भेद हैं, वास्तविक नहीं। जब स्कन्ध का कोई खण्ड बुद्धि से कल्पित किया जाता है तो उसे देश कहते हैं, यथा पृथ्वी स्कन्ध का बुद्धिकल्पित देश 'भारत' है। कोई टेबल एक स्कन्ध है, किन्तु उसका कुछ हिस्सा जो उससे अलग नहीं हुआ है वह उसका देश कहलाता है। स्कन्ध से अविभक्त परमाणु को प्रदेश कहते हैं। वही जब स्कन्ध से पृथक् हो जाता है तो 'परमाणु' कहा जाता है। यह पुद्गल का पुनः अविभाज्य अंश होता है। यद्यपि पुद्गल के सम्बन्ध में इसी ग्रन्थ के 'पुद्गल द्रव्य' अध्ययन में विस्तार से निरूपण हुआ है, तथापि इस अध्ययन से सम्बद्ध कुछ बातें यहाँ जानने योग्य हैं १. पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान में परिणमित होने की दृष्टि से पाँच प्रकार का होता है, वर्ण परिणत, गन्ध परिणत आदि। किन्तु प्रत्येक पुद्गल द्रव्य में ये पाँचों गुण रहते हैं। कोई भी पुद्गल ऐसा नहीं है जो वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान (आकार) से रहित हो। २. वर्ण पाँच प्रकार के हैं-१. काला, २. नीला, ३. लाल, ४. पीला और ५. श्वेत। गन्ध दो प्रकार के हैं-१. सुरभि गन्ध और २. दुरभि गन्ध। रस पाँच प्रकार के हैं-१. तिक्त, २. कटु, ३. कषाय, ४. अम्ल और ५. मधुर। स्पर्श आठ प्रकार के हैं-१. कर्कश, २. मृदु, ३. गुरु, ४. लघु, ५. शीत, ६. उष्ण,७. स्निग्ध और ८. रूक्ष । संस्थान पाँच प्रकार का होता है-१. परिमण्डल, २. वृत्त, ३. त्रिकोण, ४. चतुष्कोण और ५. आयत। ३.जब कोई पुद्गल काले वर्ण से परिणत होता है तो उसमें अन्य वर्गों को छोड़कर गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान के सारे प्रकार पाए जा सकते हैं। इसी प्रकार नीले वर्ण से परिणत होने पर शेष वर्गों के अतिरिक्त गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान के सारे भेद पाए जाते हैं। कहने का आशय यह है कि एक वर्ण के उसी वर्ण में परिणत होने पर गन्धादि के सारे भेदों के भंग बनते हैं। यही स्थिति गन्ध, रस एवं संस्थान के परिणमन में भी होती है। दुरभि गन्ध में परिणत होने वाले पुद्गल में वर्णादि के समस्त भेदों के भंग बनते हैं। पाँचों रसों एवं पाँचों संस्थानों में भी यही विधि लागु होती है। भंगों का संक्षेप में उल्लेख इस प्रकार है १. वर्ण परिणत के १०० भेद-काले वर्ण के साथ २ गन्ध, ५ रस, ८ स्पर्श एवं ५ संस्थान के कुल २० भेद होंगे। इसी प्रकार नीले, लाल, पीले एवं सफेद के भी २०-२० भेद होंगे। (१७२७)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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