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________________ १६४२ चनारि सण्णाओ चत्तारि कसाया। पंच इंदिया | पंच समुग्धाया। वेयणा दुविहा वि इथिवेदगा वि, पुरिसवेदगा वि, नो नपुंसगवेदगा । टिई जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेण साइरेग सागरोवम | अज्झवसाणा असंखेज्जा पसत्था वि, अप्पसत्था वि। अणुबंधो जहा ठिई। भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्महियाई, उक्कोसेणं साइरेगे सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहिं अमहियं एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा । 7 एवं नव विगमगा णं लद्धी नेयव्वा । ठिई कालादेस च उवउंजिऊण जाणेज्जा नवम गमए- कालादेसेणं जहणणेणं साइरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्महिय, उक्कोसेण वि साइरेग सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा । (१-९) नागकुमाराणं एसा चैव वत्तव्यया जहा असुरकुमाराणं । वरं-ठिई- अणुबंधी जहणेण वसवास सहरसाई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलि ओवमाई। पढम गमए- कालादेसेणं जहणणेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमधहियाई, उक्कोसेण देसूणाई दो पलिओ माई बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियाइं । एवं नव वि गमगाणं ठिई कालादेसं च उपउंजिऊण जाणेज्जा । (१-९) एवं जाव धणियकुमाराणं जहा नागकुमाराणं । - विया. स. २४, उ. १२, सु. ४१-४७ ४०. पुढविकाइए उपयज॑तेसु वाणमंतरदेवाणं उपयावाड़ बीसं दारं परूवण प. भंते! जइ वाणमंतरेहिंतो उवयजति किं पिसायवाणमंतरदेवेहिंतो उववज्जति जाव गंधव्ववाणमंतरदेवेहिंतो उववज्जति ? उ. गोयमा ! पिसायवाणमंतरदेवेहिंतो वि उववज्जति जाव गंधव्ववाणमंतरदेवेहिंतो वि उववज्जति । चारों संज्ञाएँ होती हैं। चारों कषाएँ होती है। पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं। पाँचों समुद्घात पाये जाते हैं। वेदना दो प्रकार की होती हैं। द्रव्यानुयोग - (३) वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी होते हैं किन्तु नपुंसकवेदी नहीं होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपम की होती है। उनके अध्यवसाय असंख्यात होते हैं। वे प्रशस्त और अप्रशस्त होते हैं। अनुबंध स्थिति के अनुसार होता है। भवादेश से वह दो भव ग्रहण करता है। कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष कुछ अधिक सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। इसी प्रकार नौ ही गमकों की लब्धि जाननी चाहिए। उपपात स्थिति कालादेश उपयोगपूर्वक जानना चाहिए। नौवें गमक में- कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक साधिक सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है। और इतने ही काल तक गमनागमन करता है (१-९) नागकुमारों के लिए भी असुरकुमारों के समान ही कथन करना चाहिए। विशेष- स्थिति और अनुबंध जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम का होता है। प्रथम गमक में - कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक देशोन दो पल्योपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। इसी प्रकार नी ही गमकों में स्थिति कालादेश उपयोगपूर्वक जानना चाहिए। (१-९) इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त नी गमक नागकुमारों के समान जानना चाहिए। ४०. पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले वाणव्यन्तर देवों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपण प्र. भन्ते यदि वे (पृथ्वीकायिक जीव) वाणव्यन्तर देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे पिशाच वाणव्यन्तरों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् गन्धर्व वाणव्यन्तरों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे पिशाच वाणव्यन्तर देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं यावत् गंधर्व वाणव्यन्तरों से भी आकर उत्पन्न होते हैं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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