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________________ गम्मा अध्ययन - १६४१) उ. गौतम ! वे भवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं यावत् वैमानिक देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। उ. गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतो वि उववज्जति जाव वेमाणियदेवेहिंतो वि उववज्जति। -विया. स. २४, उ. १२, सु. ४० ३९. पुढविकाइए उववज्जंतेसु भवणवासिदेवाणं उववायाइ वीस दारं परूवणंप. भंते ! जइ भवणवासिदेवेहिंतो उववजंति-किं असुरकुमारभवणवासिदेवेहिंतो उववज्जंति जाव थणियकुमारभवणवासिदेवेहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! असुरकुमारभवणवासिदेवेहितो वि उववज्जति जाव थणियकुमारभवणवासिदेवेहितो वि उववजंति। प. असुरकुमारेणं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवइयं कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तट्ठिईएस, उक्कोसेणं बावीस वाससहस्सटिईएसु। प. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति? उ. गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा,असंखेज्जा वा उववज्जंति। प. तेसिणं भंते !जीवाणं सरीरगा किं संघयणी पण्णत्ता? ३९. पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले भवनवासी देवों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भन्ते ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे असुरकुमार-भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे असुरकुमार-भवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! जो असुरकुमार पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है तो भंते ! वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! उन जीवों के शरीर किस प्रकार के संहनन वाले कहे गए हैं? उ. गौतम ! उनके शरीर छहों प्रकार के संहननों से रहित होते हैं ___ यावत् परिणत होते हैं। प्र. भन्ते ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही उ. गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी जाव परिणमंति। प. तेसि णं भंते ! जीवाणं के महालिया सरीरोगाहणा? उ. गोयमा ! दुविहा सरीरोगाहणा पण्णत्ता,तं जहा १. भवधारणिज्जा य, २. उत्तर वेउव्विया य। १. तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्सअसंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं सत्त रयणीओ। २. तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्स। प. तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं संठिया पण्णत्ता? उ. गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता,तं जहा १. भवधारणिज्जा य, २. उत्तरवेउव्विया य। १. तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते समचउरंस संठाणसंठिया पण्णत्ता। २. तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते नाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता। लेस्साओ चत्तारि। दिट्ठी तिविहा वि। तिण्णि नाणा नियम, तिण्णि अण्णाणा भयणाए। उ. गौतम ! शरीर की अवगाहना दो प्रकार की कही गई है, यथा १. भवधारणीय, २. उत्तरवैक्रिय। १.उनमें जो भवधारणीय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात रलि (हाथ) की है। २. उनमें जो उत्तरवैक्रिय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। प्र. भन्ते ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौन-सा कहा गया है? उ. गौतम !(संस्थान) दो प्रकार का कहा गया है, यथा १. भवधारणीय, २. उत्तरवैक्रिय। १. उनमें जो भवधारणीय शरीर हैं, वे समचतुरनसंस्थान वाले कहे गए हैं, २. जो उत्तर वैक्रिय शरीर हैं, वे अनेक प्रकार के संस्थान वाले कहे गए हैं। उनके चार लेश्याएँ होती हैं। उनमें तीन दृष्टियाँ होती हैं। उनके तीन ज्ञान नियमतः होते हैं और तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से पाये जाते हैं। योग तीनों ही पाये जाते हैं। उपयोग दोनों ही होते हैं। जोगो तिविहो वि। उवओगो दुविहो वि।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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