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________________ । गम्मा अध्ययन १६३७ ३0. पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले त्रीन्द्रिय जीवों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणद्वीन्द्रिय के समान त्रीन्द्रिय जीवों के भी नी गमक कहने चाहिए। ३०. पुढविकाइए उववज्जंतेसु तेइंदियाणं उववायाइ वीसं दारं परूवणंतेइंदियाण वि एवं चेव नव गमगा बेइंदिय सरिसा भाणियव्वा, णवरं-सरीरोगाहणा उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। तिण्णि इंदियाई। ठिई-जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं एगूणपन्नं राइंदियाई। तइय गमए-कालादेसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीईं वाससहस्साई छण्णउयराइंदियसयमब्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा।। उववाओ ठिई,संवेहोय उवउंजिऊण भाणियब्बो (१-९) -विया.सं.२४,उ.१२,सु.२५ ३१. पुढविकाइए उववज्जंतेसु चउरिदियाणं उववायाइ वीसं दारं परूवणंचउरिंदियाण वि नव गमगा बेइंदिय सरिसा भाणियव्या, विशेष-शरीर की अवगाहना उत्कृष्ट तीन गाउ (कोश) होती है। इनके तीन इन्द्रियाँ होती हैं। इनकी स्थिति-जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट गुणपचास (४९) अहोरात्र की होती है। तृतीय गमक में कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सौ छिनवें (१९६) अहोरात्र अधिक अठ्यासी हजार वर्ष जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। उपपात स्थिति और कालादेश उपयोग लगाकर कहने चाहिए। (१-९) ३१. पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले चतुरिन्द्रिय जीवों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणचतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी नौ गमक बेइन्द्रिय के समान कहने चाहिए। विशेष-इनके शरीरों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार गाउ की होती है। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट छह मास की होती है। अनुबंध भी स्थिति के समान होता है। इनके चार इन्द्रियाँ होती है। उपपात स्थिति संवेध उपयोग लगाकर कहना चाहिए। नौवें गमक में कालादेश से जघन्य छह मास अधिक बावीस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चौवीस मास अधिक अठ्यासी हजार वर्ष जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (१-९) णवर-सरीरोगाहणा-जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण य छम्मासा। एवं अणुबंधो वि। चत्तारि इंदियाई। उववायं ठिई संवेहो य उवउंजिऊण भाणियव्यो। नवम गमए-कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्साई छहिं मासेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीई वाससहस्साई . चउवीसाए मासेहिं अब्भहियाई, एवइयं काल सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा।(१-९) -विया.स.२४, उ.१२, सु.२६ ३२. पंचिंदिय तिरिक्खजोणिए पडुच्च पुढविकाइय उववाय परूवणंप. भंते ! जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति-किं सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति? उ. गोयमा ! दोहिं वि उववज्जति। प. भंते ! जइ असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति-किं जलचरेहिंतो उववजंति, थलचरेहिंतो उववज्जति,खहचरेहिंतो उववज्जति? ३२. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों की अपेक्षा पृथ्वीकाय के उपपात का प्ररूपणप्र. भंते ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे दोनों से आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भंते ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे जलचरों से आकर उत्पन्न होते हैं, स्थलचरों से आकर उत्पन्न होते हैं या खेचरों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे तीनों से आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. भंते ! यदि जलचर-स्थलचर और खेचरों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्तकों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्तकों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गोयमा ! तीहिं वि उववज्जति, प. भंते ! जइ जलचर-थलचर-खहचरेहिंतो उववज्जति किं-पज्जत्तएहिंतो उववज्जंति, अपज्जत्तएहितो उववज्जंति? .
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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