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________________ १६३६ सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएस उववण्णो एसा चेव पढम गमगसरिसा सव्वा वत्तव्वया। णवरं-उववायं ठिई उवउंजिऊण भाणियव्वं । भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठभवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीई वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (तइओ गमओ) सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ, तस्स वि एस चेव पढम गमग वत्तव्वया तिसु वि गमएसु, द्रव्यानुयोग-(३) यदि वही (द्वीन्द्रिय) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो सभी कथन प्रथम गमक क समान करना चाहिए। विशेष-उपपात स्थिति उपयोग पूर्वक कहनी चाहिए। भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है। कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अड़तालीस वर्ष अधिक अट्ठयासी हजार वर्ष जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह तृतीय गमक है।) णवरं-इमाई सत्त नाणत्ताई१. सरीरोगाहणा-जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं, २. नो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी, ३. दो अण्णाणा नियम, ४. नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी, वही (द्वीन्द्रिय) स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हो तो उसके भी तीनों गमक (४-५-६) प्रथम गमक के समान कहने चाहिए। विशेष-यहाँ सात बोलों में अन्तर है, यथा१. शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है। २. वह सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होता, किन्तु ____ मिथ्यादृष्टि होता है। ३. इसमें दो अज्ञान नियमतः होते हैं। ४. मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होता, किन्तु काययोगी होता है। ५. जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। ६. अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं। ७. अनुबन्ध स्थिति के अनुसार है। तृतीय (छ8) गमक में-भवादेश भी उसी प्रकार उत्कृष्ट आठ भव जानना चाहिए। कालादेश से जघन्य अंतर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अंतर्मुहूर्त अधिक अट्ठयासी हजार वर्ष जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह चौथा, पाँचवाँ और छठा गमक है) ५. ठिई-जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं, ६. अज्झवसाणा अप्पसत्था, ७. अणुबंधो जहा ठिई। तइय गमए-भवादेसो उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्महियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीइं वाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहिया, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (४-६) (चउत्थ-पंचम छट्ठ गमा) सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ, एयस्स वि पढमगमगसरिसा तिण्णि गमगा भाणियव्वा, णवरं-तिसु वि गमएसु ठिई जहण्णेण वि उक्कोसेण वि बारस संवच्छराई। एवं अणुबंधो वि। भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालादेसेणं उवउंजिऊण भाणियव्वं, नवमे गमए-जहण्णेणं बावीसं वाससहस्साई बारसहिं संवच्छरेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीई वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (७-९)(सत्तम-अट्ठम-नवम गमा) -विया. स. २४, उ.१२, सु. १८-२४ वही (द्वीन्द्रिय जीव) स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो उसके भी तीनों गमक (७-८-९) प्रथम गमक के समान कहने चाहिए। विशेष-इन (अन्तिम) तीनों गमकों में स्थिति जघन्य बारह वर्ष और उत्कृष्ट भी बारह वर्ष की होती है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है। भवादेश से जघन्य-दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है। कालादेश उपयोग लगा करके कहना चाहिए। नौवें गमक में-जघन्य बारह वर्ष अधिक बावीस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अड़तालीस वर्ष अधिक अट्ठयासी हजार वर्ष जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह सातवाँ, आठवाँ और नौवाँ गमक है)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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