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________________ गम्मा अध्ययन २९. पुढविकाइए उववज्जतेसु बेइंदियाणं उववायाइ वीसं दार परूवणंप. भंते ! जइ बेइंदिएहिंतो उववजंति-किं पज्जत्ता बेइंदिएहिंतो उववज्जति, अपज्जत्ता-बेइंदिएहितो उववज्जति? उ. गोयमा ! पज्जत्ता-बेइंदिएहितो वि उववजंति, अपज्जत्ता-बेइंदिएहितो वि उववज्जंति। प. बेइंदिए णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तट्ठिईएसु उववज्जेज्जा उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्सट्ठिईएसु उववज्जेज्जा। प. ते णं भंते !जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति? उ. गोयमा ! जहण्णेणं एको वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जंति। सेसं तं चेव पण्होत्तराणि जहा पुढविकाइयाणं, णवरं-छेवट्ट संघयणी। ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं बारस जोयणाइं। हुंडसंठिया। तिण्णि लेसाओ। सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। २९. पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले द्वीन्द्रियों के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भंते ! यदि वे द्वीन्द्रिय जीवों से आकर उत्पन्न हो तो क्या पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे पर्याप्त द्वीन्द्रियों से भी उत्पन्न होते हैं और अपर्याप्त द्वीन्द्रियों से भी उत्पन्न होते हैं। प्र. भंते ! जो द्वीन्द्रिय जीव पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है तो भंते ! वे कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं। प्र. भंते ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष प्रश्नोत्तर पृथ्वीकाय के समान है। विशेष-वे सेवार्तसंहनन वाले होते हैं। अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट बारह योजन की है। हुंडक संस्थान वाले होते हैं। (आदि की) तीन लेश्याएँ होती हैं। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। दो ज्ञान और दो अज्ञान नियमतः होते हैं। मनोयोगी नहीं होते किन्तु वचनयोगी और काययोगी होते हैं। दो उपयोग पाये जाते हैं। चार संज्ञाए होती हैं। चार कषाय होते हैं। उनके दो इन्द्रियाँ कही गई हैं, यथाजिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। उनमें (आदि के) तीन समुद्घात होते हैं। स्थिति-जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार है। शेष सब कथन पृथ्वीकाय के समान है। भवादेश से-वे जघन्य दो भव और उत्कृष्ट संख्यात भव ग्रहण करते हैं। कालादेश से वे जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल जितना काल व्यतीत करते हैं और इतने ही काल तक गमनागमन करते हैं। (यह प्रथम गमक है।) वही (द्वीन्द्रिय) जीव जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो सभी कथन प्रथम गमक के समान करना चाहिए। (यह द्वितीय गमक है) दो नाणा, दो अण्णाणा नियम। नो मणजोगी, वइजोगी वि, कायजोगी वि। उवओगो दुविहो वि। चत्तारि सण्णाओ। चत्तारि कसाया। दो इंदिया पण्णत्ता, तं जहाजिभिदिए य, फासिंदिए य। तिष्णि समुग्पाया। ठिई-जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई। एवं अणुंबधो वि।सेसंतं चेव जहा पुढविकाइयाणं। भवादेसेणं-जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं भवग्गहणाई। कालादेसेणं-जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा।(१ पढमो गमओ) सो चेव जहण्णकालटिईएसु उववण्णो, एसा चेव पढम गमग सरिसा सव्वा वत्तव्वया।(२ बिइओ गमओ)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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