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________________ गम्मा अध्ययन समचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता। चत्तारि लेस्साओ आदिल्लाओ। नो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी नो सम्मामिच्छादिट्ठी। नो नाणी, अण्णाणी, नियमं दुअण्णाणी-मइअण्णाणी-सुयअण्णाणी य। जोगो तिविहो वि। उवओगो दुविहो यि। चत्तारि सण्णाओ। चत्तारि कसाया। पंच इंदिया। तिण्णि समुग्घाया आदिल्ला। समोहया वि मरंति,असमोहया वि मरंति। - १६२३ ) वे समचतुरनसंस्थान वाले कहे गए हैं। उनमें आदि की चार लेश्याएं होती हैं। वे सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते, किन्तु मिथ्यादृष्टि होते हैं। वे ज्ञानी नहीं होते किन्तु अज्ञानी होते हैं। उनमें नियमतः दो अज्ञान होते हैं-मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान। उनमें योग तीनों ही पाये जाते हैं। उपयोग भी दोनों प्रकार के होते हैं। उनमें चार संज्ञा होती हैं। चार कषाय पाये जाते हैं। पाँचों इन्द्रियाँ हैं। आदि के तीन समुद्घात हैं। वे समुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। उनमें साता और असाता दोनों प्रकार की वेदनाएं होती हैं। वे स्त्री वेदी और पुरुषवेदी होते हैं नपुंसकवेदी नहीं होते हैं। वेदणा दुविहा वि,१.सायावेदगा,२.असायावेदगा। वेदो दुविहो वि-इत्थिवेदगा वि, पुरिसवेदगा वि, नो नपुंसगवेदगा। ठिई-जहण्णेणं साइरेगं पुव्वकोडी, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। अज्झवसाणा पसत्था वि, अप्पसत्था वि। अणुबंधो जहेव ठिई, कायसंवेहो-भवादेसेणं दो भवग्गद्दणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसेणं छप्पलिओवमाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (१ पढमो गमओ) सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो-एसा चेव वत्तव्वया पढम गमगसरिसा। उनकी स्थिति जघन्य कुछ अधिक पूर्वकोटि वर्ष की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। उनके अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी होते हैं। उनका अनुबन्ध स्थिति के समान होता है, कायसंवेध-भवादेश से दो भव ग्रहण करते हैं, कालादेश से जघन्य दस हजार वर्ष साधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट छह पल्योपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह प्रथम गमक है।) णवर-असुरकुमाराणं जहण्णट्ठिई संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा (२ बिईओगमओ) सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो, जहण्णेणं तिपलिओवमट्टिईएसु, उक्कोसेण वि तिपलिओवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा वही (असंख्यातवर्षायुष्क पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक) जीव जघन्य काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो तो इसका समग्र कथन प्रथम गमक के समान जानना चाहिए। विशेष-असुरकुमारों की जघन्य स्थिति और संवेध स्वयं उपयोगपूर्वक जान लेना चाहिए। (यह द्वितीय गमक है) वही उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो तो जघन्य तीन पल्योपम की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है। इसका भी शेष कथन प्रथम गमक के समान जानना चाहिए। विशेष-उसकी स्थिति जघन्य तीन पल्योपम की और उत्कृष्ट भी तीन पल्योपम की होती है। इतना ही अनुबन्ध भी है। कालादेश से जघन्य छह पल्योपम और उत्कृष्ट भी छह पल्योपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह तृतीय गमक है।) सेसंतं चेव वत्तव्वया पढम गमग सरिसा। णवर-ठिई-जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाई, उक्कोसेण वि तिण्णि पलिओवमाई। एवं अणुबंधो वि। कालादेसेणं जहण्णेणं छप्पलिओवमाई, उक्कोसेण वि छप्पलिओवमाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा (३ तइओ गमओ।)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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