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________________ गम्मा अध्ययन १६२१ कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुव्वकोडीए अब्भहियाई, एवइयं काल सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा।(१ पढमो गमओ) सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो, एसा चेव पढम गमग वत्तव्यया, णवरं-नेरइयट्ठिई संवेहं च जाणेज्जा (२ बिइओ गमओ) सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो एसा चेव वत्तव्यया, णवर-संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा (३ तइओ गमओ) सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु एसा चेव पढम गमग वत्तव्वया, णवर- सरीरोगाहणा जहण्णेणं रयणिपुहत्तं, उक्कोसेण वि रयणिपुहत्तं। ठिई जहण्णेणं वासपुहत्तं,उक्कोसेण वि वासपुहत्तं। कालादेश से जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और उतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह प्रथम गमक है) वही मनुष्य जघन्य काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वीनारकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो इसका समग्र कथन प्रथम गमक के समान जानना चाहिए। विशेष-नैरयिक की स्थिति और संवेध को उपयोग पूर्वक जान लेना चाहिए। (यह द्वितीय गमक है) वही मनुष्य उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो इसका भी सम्पूर्ण कथन प्रथम गमक के समान है। विशेष-इसका संवेध उपयोग लगाकर जान लेना चाहिए। (यह तृतीय गमक है) वही (पर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क संज्ञी) मनुष्य स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो तीनों गमकों में प्रथम गमक के समान कथन है। विशेष-उनके शरीर की अवगाहना जघन्य रलिपृथक्त्व और उत्कृष्ट भी रलिपृथक्त्व है। उनकी स्थिति जघन्य वर्ष पृथक्त्व और उत्कृष्ट भी वर्ष पृथक्त्व की है। अनुबन्ध स्थिति के समान है। संवेध (कालादेश) के विषय में उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। (यह चतुर्थ-पंचम-षष्ठ गमक है) वही संज्ञी मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य हो तो उसके भी उन उत्कृष्ट के तीनों गमकों में प्रथम गमक के समान कथन है। विशेष-शरीर की अवगाहना जघन्य पांच सौ धनुष और उत्कृष्ट भी पांच सौ धनुष की है। स्थिति जघन्य पूर्व कोटि वर्ष की और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटि वर्ष की है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी है। नैरयिकों की स्थिति और संवेध का उपयोग पूर्वक स्वयं विचार करना चाहिए। कालादेश से जघन्य पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (७-९)(यह सातवां, आठवां और नौवां गमक है) एवं अणुबंधो वि। संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्यो। (४-६ चउत्थ-पंचम छट्ठ गमा) सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ, तस्स वि तिसु विगमएसु एस चेव पढम गमग वत्तव्वया, णवरं-सरीरोगाहणा-जहण्णेणं पंचधणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई। ठिई-जहण्णेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण विपुव्वकोडी। एवं अणुबंधो वि। नेरइयट्ठिई संवेहं च उवउंजिऊण जाणेज्जा। कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुव्वकोडीए अब्भहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई पुव्वकोडीए अब्भहियाई, एवइयं काल सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (७-९ सत्तम-अट्ठम-नवम गमा) -विया. स. २४, उ.१, सु. ११२-११७ ११. गईं पडुच्च असुरकुमारोववाय परूवणंप. असुरकुमारे णं भंते! कओहिंतो उववजंति? किं नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिए-मणुस्स देवेहिंतो उववज्ज्जति? उ. गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, ११. गति की अपेक्षा असुरकुमारों के उपपात का प्ररूपणप्र. भंते ! असुरकुमार कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्चयोनिक मनुष्य या देवों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं,
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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