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________________ १६२० एवं एसा ओहिए ति गमएसु मणूसस्स लद्धी, णवर-नेरइयट्टिई, कालादेसेणं संवेहं च उवउजिऊण जाणेज्जा । (१-३ पढम-बिइया - तइया गमा) सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएस एसा चेव पढमगमग सरिस लद्धी, णवरं - सरीरोगाहणा जहण्णेणं रयणिपुहत्तं, उक्कोसेण विरयणिपुत्तं । ठिई जहणे वासपुहत्तं, उक्कोसेण वि वासपुहतं । एवं अणुबन्ध वि संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्वो । ( ४-६ चउत्थ-पंचम छट्ठ गमा) सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएस पढम गमग सरिस वत्तव्वया, नवरं सरीरोगाहणा जहणेण पंचधणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई। ठिई जहणेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी । एवं अणुबंध वि नेरइय दिई कायसंवेह च उवउंजिऊण जाणेज्जा । (७-९ सप्तम अट्ठम नवम गमा) एवं जाव छट्ठपुढवी णेयव्वा, णवरं - तच्चाए आढवेत्ता एक्केक्कं संघएणं परिहायइ, जहेव तिरिक्खजोणियाणं । मणुस्सडिई कालादेसो य उवउंजिऊण भाणियब्यो । -विया. सं. २४, उ. १, सु. १०६-१११ १०. अहेसत्तमनरयउववज्जंतेसु पज्जत्त सन्नि संखेज्ज वासाउय मणूसस्स उववायाइ वीसं दारं परूवणं प. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं भन्ते ! जे भविए असत्तमाए पुढवीए नेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भन्ते ! केवइयकालट्ठिईएस उर्ववज्जेज्जा ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं बावीससागरोवमट्ठिईएसु, उक्कोसेण तेत्तीससागरोयमट्ठिईएस उववज्जेज्जा । प्र. ते णं भन्ते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति ? उ. गोयमा ! सो चैव सक्करम्भापुढविगमओ नेपथ्यो, नवरं पढमं संघयणं इत्थवेदगा न उबवज्जति भवादेसेणं दो भवग्गहणाई । द्रव्यानुयोग - ( ३ ) इसी प्रकार औधिक (सामान्य) के तीनों गमकों में मनुष्य की लब्धि का कथन है। विशेष - नैरयिक की स्थिति और कालादेश से संवेध को उपयोग लगाकर जान लेना चाहिए। (यह प्रथम, द्वितीय, तृतीय गमक है) वही मनुष्य स्वयं जघन्य स्थिति से शर्कराजभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो उसके तीनों जघन्य गमकों में वही प्रथम गमक के समान कथन है। विशेष-उनके शरीर की अवगाहना जघन्य रनिपृथक्त्व और उत्कृष्ट भी रनिपृथक्त्व है। उनकी स्थिति जघन्य वर्ष पृथक्त्व और उत्कृष्ट भी वर्ष पृथक्व की है। इतना ही अनुबन्ध भी है। संवेध भी उपयोगपूर्वक समझ लेना चाहिए। (यह चौथापाँचवां छठा गमक है।) - प्र. उ. वही मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और शर्करा - प्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो उसके तीनों गमकों का कथन प्रथम गमक के समान है। विशेष-उनके शरीर की अवगाहना जघन्य पाँच सौ धनुष की और उत्कृष्ट भी पाँच सौ धनुष की है। उनकी स्थिति जघन्य पूर्वकोटि वर्ष की और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटिवर्ष की है। इतना ही अनुबन्ध काल भी है। नैरयिक की स्थिति और कायसंवेध को तदनुकूल उपयोगपूर्वक जानना चाहिए। (यह सातवां आठवां नौवां गमक है।) इसी प्रकार छठी नरकपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष- तिर्यञ्चयोनिक के समान तीसरी नरकपृथ्वी से आगे एक-एक संहनन कम होता है। मनुष्यों की स्थिति एवं कालादेश भी उपयोग पूर्वक कहना चाहिए। १०. अधः सप्तम नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संज्ञी संख्यात वर्षायुष्क मनुष्य के उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भन्ते ! पर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क-संज्ञी मनुष्य जो अधः सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है तो भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम की स्थिति वाले और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। भन्ते ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! इसका समग्र कथन शर्कराप्रभापृथ्वी के गमक के समान समझना चाहिए। विशेष - प्रथम संहनन वाले ही उत्पन्न होते हैं, स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते। भवादेश से दो भव ग्रहण करता है,
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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