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________________ गम्मा अध्ययन णवरं-सरीरोगाहणा जहण्णेणं पंचधणुसयाई, उक्कोसेण विपंचधणुसयाई। ठिई जहण्णेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी। एवं अणुबंधो वि। कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहि अब्भहिया, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (७ सत्तमो गमओ) सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो, सच्चेव सत्तमगमगवत्तव्वया, १६१९ । विशेष-उनके शरीर की अवगाहना जघन्य पाँच सौ धनुष और उत्कृष्ट भी पाँच सौ धनुष की है। उनकी स्थिति जघन्य पूर्वकोटि और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटि वर्ष की है। इतना ही अनुबन्ध का समय है। कालादेश से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह सातवां गमक है) वही (उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला) मनुष्य जघन्य काल की स्थिति (वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों) में उत्पन्न होने योग्य हो तो उसका कथन सप्तम गमक के समान है। विशेष-कालादेश से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चालीस हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह आठवां गमक है) . णवरं-कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा। (८ अट्ठमो गमओ) सो चेव उक्कोसकालट्ठिइएसु उववण्णो, सच्चेव सत्तमगमगवत्तव्वया, णवरं-कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं पुव्वकोडीए अब्भहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं काल सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा।(९ नवमो गमओ) -विया.स.२४. उ.१, सु. ९६-१०५ ९. सक्करप्पभाइ तमापुढवि नेरइय उववज्जतेसु पज्जत्त सन्नि संखेज्ज वासाउयमणुस्सेसु उववायाइ वीसं दारं परूवणं वही (उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला) मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति वाले (रलप्रभापृथ्वी के नैरयिकों) में उत्पन्न होने योग्य हो तो उसका कथन भी सप्तम गमक के समान है। विशेष-कालादेश से जघन्य पूर्वकोटि अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। (यह नौवां गमक है) प. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं भन्ते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमट्ठिईएसु, उक्कोसेणं तिसागरोवमट्ठिईएसु उववज्जेज्जा। प. ते णं भन्ते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति? उ. गोयमा ! सो चेव रयणप्पभापुढवि गमओ नेयव्यो, ९. शर्कराप्रभा से तमःप्रभा पृथ्वी पर्यन्त नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संज्ञी संख्यात वर्षायुष्क मनुष्य में उपपातादि बीस द्वारों का प्ररूपणप्र. भन्ते ! पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य जो शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वह जघन्य एक सागरोपम की और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! वे जीव वहाँ एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के समान सारा कथन जानना चाहिए। विशेष-उनके शरीर की अवगाहना जघन्य रत्निपृथक्त्व (अनेक हाथ) और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष है। उनकी स्थिति जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की है। इतना ही अनुबन्ध भी है। कालादेश से जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम जितना काल व्यतीत करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। णवरं-सरीरोगाहणा जहण्णेणं रयणिपुहत्तं, उक्कोसेणं पंचधणुसयाई। ठिई-जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। एवं अणुबंधो वि। कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं वासपुहत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई चउहि पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं काल गतिरागतिं करेज्जा।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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