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________________ १५७८ १३. सागारोवउत्ता वा अणागारोवउत्ता वा । प. १४. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा कइवण्णा जाव कइ फासा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! पंच वण्णा, पंच रसा, दुगंधा, अट्ठफासा पण्णत्ता, ते पुण अप्पणा अवण्णा, अगंधा, अरसा अफासा पण्णत्ता, १५. ऊसासगा वा, नीसासगा वा, नो ऊसासगनीसासगा । १६. आहारगा वा अणाहारगा वा । १७. नो विरया, अविरया, नो विरयाविरया । १८. सकिरिया, नो अकिरिया । १९. सत्तविहबंधगा वा अट्ठविहबंधगा था। " २०. आहारसन्नोवउत्ता वा जाय परिग्गहसन्नोवउत्ता वा । २१. कोहकसाई वा जाय लोभकसाई था। २२. नो इत्थिवेयगा, नो पुरिसवेयगा, नपुंसगवेयगा । २३. इत्यिवेदबंधगा वा पुरिसवेदबंधगा वा, नपुंसगवेदबंधगा था। २४. नो सण्णी असण्णी । २५. सइंदिया, नो अणिदिया। प. २६. ते णं भंते ! “कडजुम्मकडजुम्मएगिंदिय” त्ति कालओ केवचिर होति ? उ. गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अनंतं कालं -अणतो वणस्सइकालो, २७. संदेहो न भण्णइ । प. २८. ते भंते! जीवा किमाहारमाहारेति ? उ. गोयमा ! अणतपदेसियाई दव्वाई, खेत्तओ असंखेज्जपदेसोगाढाई, कालओ - अण्णयरं कालट्ठिईयाई, भावओ वण्णताई, गंधर्मताई, रसमंताई, फासमंताई। एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सइकाइयाणं आहारो तहेव जाव सव्वष्पणयाए आहारमाहारेंति, णवरं-निव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसिं सेसं तहेव । २९. ठिई जहणेण एक्कं समयं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई । ३०. समुग्धाया आइल्ला चत्तारि, मारणतियसमुग्धाए णं समोहया वि मरति असमोहया वि मरति । द्रव्यानुयोग - (३) १३. ये साकारोपयोग युक्त भी होते हैं और अनाकारोपयोग युक्त भी होते हैं। प्र. १४. भंते ! उन एकेन्द्रिय जीवों के शरीर कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाले कहे गए हैं? उ. गौतम ! उनके शरीर पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले कहे गए हैं और वे स्वयं वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित कहे गए हैं। १५. वे उच्छवास वाले भी हैं, निःश्वास वाले भी हैं और नो उच्छवास निःश्वास वाले भी हैं। १६. वे आहारक भी हैं और अनाहारक भी हैं। १७. वे विरत (सर्वविरत) और विरताविरत (देशविरत) नहीं होते, किन्तु अविरत होते हैं। १८. वे क्रियायुक्त होते हैं, क्रियारहित नहीं होते है। १९. वे सात या आठ कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं। २०. वे आहारसंज्ञोपयोगयुक्त भी है यावत् परिग्रहसंज्ञोपयोगयुक्त भी हैं। २१. वे क्रोधकषायी भी हैं यावत् लोभकषायी भी हैं। २२. वे स्त्रीवेदी या पुरुषवेदी नहीं होते किन्तु नपुंसकवेदी होते हैं। २३. वे स्त्रीवेद-बन्धक, पुरुषवेद-बन्धक या नपुंसकवेद-बंधक होते हैं। २४. वे संज्ञी नहीं होते, असंज्ञी होते हैं। २५. वे सइन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय नहीं होते हैं। प्र. २६. भंते! वे कृतयुग्म कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा कितने काल तक रहते हैं ? उ. गौतम ! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल - अनन्त (उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीरूप) वनस्पतिकाल - पर्यन्त रहते हैं। २७. यहाँ संवेध नहीं कहना चाहिए। प्र. २८. भंते ! वे एकेन्द्रिय जीव क्या आहार करते हैं ? उ. गौतम ! वे द्रव्यतः अनन्तप्रदेशी पदार्थों का आहार करते हैं, क्षेत्रतः असंख्यात प्रदेशावगाढ पदार्थों का आहार करते हैं, कालतः अन्यतर काल स्थिति वाले द्रव्यों का आहार करते हैं, भावतः वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पदार्थों का आहार करते हैं। इसी प्रकार जैसे आहार उद्देशक में वनस्पतिकायिकों के आहार का वर्णन किया गया है उसी प्रकार वे सर्वप्रदेशों से आहार करते हैं। विशेष- वे व्याघातरहित हों तो छहों दिशाओं से और व्याघात होने पर कदाचित् तीन, चार या पांच दिशाओं से आहार लेते हैं, शेष कथन पूर्ववत् है। २९. इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की है। ३०. इनमें आदि के चार समुद्घात पाये जाते हैं। वे मारणान्तिक समुद्घात से समग्रस्त होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं।
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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