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________________ युग्म अध्ययन : आमुख अनेक जीवों की अपेक्षा ओघाशन योज एवं द्वापरयुग्म रूप नहीं होता। यह नया में पृथकरूपेण विचार किया गया है। 'युग्म' जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। यह चार की संख्या का द्योतक है। चार की संख्या के आधार पर युग्म का विचार किया जाता है। प्रायः गणितशास्त्र में समसंख्या को युग्म एवं विषमसंख्या को ओज कहा गया है। इन युग्म एवं ओज संख्याओं का विचार जब युग्म चार की संख्या के आधार पर किया जाता है तो युग्म के चार भेद बनते हैं-१. कृतयुग्म, २. ओज, ३. द्वापरयुग्म और ४. कल्योज। इनमें से दो युग्म अर्थात् समराशियाँ हैं तथा दो ओज अर्थात् विषम राशियाँ हैं। इन सबका विचार चार की संख्या के आधार पर किए जाने से इन्हें युग्म राशियाँ कहा गया है। इनके स्वरूप का निरूपण प्रस्तुत अध्ययन में हुआ है। तदनुसार जिस राशि में चार-चार निकालने पर अन्त में चार शेष रहें वह 'कृतयुग्म' है, यथा-८, १२, १६, २०, २४ आदि संख्याएँ। जिस राशि में से चार-चार निकालने पर अन्त में तीन शेष रहे उसे त्र्योज कहते हैं, यथा-७,११,१५ आदि संख्याएँ। इसी प्रकार जिस राशि में से चार-चार घटाने पर अन्त में दो शेष रहे उसे द्वापर युग्म एवं जिसमें एक शेष रहे उसे कल्योज कहते हैं। यथा-६, १०, १४, १८ आदि संख्याएँ द्वापरयुग्म एवं ५, ९, १३, १७ आदि संख्याएँ कल्योज हैं। इन कृतयुग्म आदि भेदों का २४ दण्डकों के जीवों एवं सिद्धों में निरूपण हुआ है। जिसके अनुसार वनस्पतिकाय को छोड़कर समस्त जीवों में चार प्रकार के युग्म पाए जाते हैं। वनस्पतिकाय एवं सिद्धों में कदाचित् कृतयुग्म, कदाचित् त्र्योज, कदाचित् द्वापरयुग्म एवं कदाचित् कल्योज युग्म कहा गया है। जघन्य, उत्कृष्ट एवं अजघन्योत्कृष्ट दृष्टि से भी इन युग्मों का विभिन्न जीवों में विचार किया गया है। स्त्रियों में पृथक्रूपेण विचार किया गया है। द्रव्यार्थ की दृष्टि से एक जीव कल्योज रूप होता है, कृतयुग्म, त्र्योज एवं द्वापरयुग्म रूप नहीं होता। यह नियम एक जीव की अपेक्षा समस्त चौबीस दण्डकों में लागु होता है। अनेक जीवों की अपेक्षा ओघादेश से वे कृतयुग्म है, विधानादेश से वे कल्योज रूप हैं। प्रदेश की अपेक्षा जीव कृतयुग्म है तथा शरीरप्रदेशों की अपेक्षा वह कदाचित् कृतयुग्म है यावत् कदाचित् कल्योज रूप है। कदाचित् एक जीव कृतयुग्म प्रदेशावगाढ़ है यावत् कदाचित् कल्योज प्रदेशावगाढ़ है। इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक दण्डक पर्यन्त विधान है। स्थिति की अपेक्षा से एक जीव कृतयुग्म समय की स्थिति वाला है। नैरयिक आदि एक जीव कदाचित् कृतयुग्म समय की स्थिति वाला यावत् कदाचित् कल्योज समय की स्थिति वाला माना गया है। प्रस्तुत अध्ययन विविध जानकारियों से सम्पन्न है। इसमें सामान्य जीव, चौबीस दण्डकों एवं सिद्धों में कृतयुग्मादि का निरूपण वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा, ज्ञान पर्यायों, अज्ञान पर्यायों एवं दर्शन पर्यायों की अपेक्षा से भी हुआ है। यही नहीं इसमें युग्म को क्षुद्रयुग्म एवं महायुग्म के रूप में भी निरुपित करते हुए विभिन्न द्वारों से उनका प्रतिपादन किया गया है। यह वैशिष्ट्य है कि क्षुद्रयुग्म के अन्तर्गत मात्र नैरयिकों एवं महायुग्म के अन्तर्गत एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय एवं संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों का निरूपण किया गया है। क्षुद्रयुग्म से आशय है लघु संख्या वाली राशि तथा महायुग्म से आशय है बड़ी संख्या वाली राशि। क्षुद्रयुग्म के भी वे ही चार भेद हैं-१. कृतयुग्म, २. व्योज, ३. द्वापर युग्म और ४. कल्योज। इनका भी वही लक्षण है जो युग्म के भेदों का है। क्षुद्रकृतयुग्मादिराशि में नैरयिकों के उपपात आदि का निरूपण है। नैरयिकों में भी कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी, कापोतलेश्यी, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, कृष्णपाक्षिक एवं शुक्लपाक्षिक की अपेक्षा से विस्तृत निरूपण है। उपपात की भाँति उद्वर्तन का वर्णन है। इस सन्दर्भ में किया गया अधिकांश निरूपण व्युत्क्रान्ति (वुकंति) अध्ययन से मेल खाता है। महायुग्म के १६ भेद कहे गये हैं-१. कृतयुग्म कृतयुग्म, २. कृतयुग्म त्र्योज, ३. कृतयुग्म द्वापरयुग्म, ४. कृतयुग्म कल्योज, ५. त्र्योज कृतयुग्म, ६. त्र्योजत्र्योज, ७. त्र्योज द्वापरयुग्म, ८. त्र्योज कल्योज, ९. द्वापरयुग्म कृतयुग्म, १0. द्वापरयुग्म त्र्योज, ११. द्वापरयुग्म द्वापरयुग्म, १२. द्वापरयुग्म कल्योज, १३. कल्योज कृतयुग्म, १४. कल्योज व्योज, १५. कल्योजद्वापरयुग्म और १६. कल्योज कल्योजाये १६ भेद उन मूल चार भेदों के ही विभिन्न अंगों का परिणाम है। इन भेदों के स्वरूप का आधार भी पूर्ववत् चार की संख्या ही है। उदाहरण के लिये कृतयुग्मकृतयुग्म का अर्थ है किसी राशि में से चार-चार की संख्या का अपहार करने पर चार शेष रहें, किन्तु उस राशि के पुनः अपहार करने पर कृतयुग्म (चार) शेष रहे तो उसे कृतयुग्मकृतयुग्म कहा जाएगा। महायुग्मों के अन्तर्गत एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का उत्पात आदि ३२ द्वारों से निरुपण हुआ है। वे ३२ द्वार हैं-१. उपपात, २. परिमाण, ३.अपहार, ४. अवगाहना, ५. बन्धक, ६. वेद,७. उदय, ८. उदीरणा, ९. लेश्या, १०. दृष्टि,११. ज्ञान, १२. योग, १३. अयोग, १४. वर्णरसादि, १५. उच्छ्वास, १६. आहारक, १७. विरति, १८. क्रिया, १९. बन्धक, २०. संज्ञा, २१. कषाय, २२. स्त्रीवेदादि,२३. बन्ध, २४, संज्ञी,२५. इन्द्रिय, २६. अनुबन्ध, २७. संवेध, २८. आहार, २९. स्थिति, ३०. समुद्घात,३१. च्यवन और ३२. सभी जीवों का मूलादि में उपपात। यह वर्णन भी ११ उद्देशकों में हुआ है जिनमें औधिक, प्रथमसमयोत्पन्न एवं अप्रथमसमयोत्पन्न से चरमाचरमसमय तक के तीन विभाजन प्रमुख हैं। लेश्या, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक आदि के आधार पर भी इन जीवों को महायुग्म के अन्तर्गत निरुपित किया गया है। समस्त वर्णन उपपात आदि ३२ द्वारों में सिमटा हुआ है। अन्त में राशियुग्म के कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापरयुग्म एवं कल्योज भेद करते हुए २४ दण्डकों में उपपात आदि का निरुपण किया गया है। इनका भी लेश्या, भवसिद्धि, अभवसिद्धि, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक आदि अपेक्षाओं से विस्तृत निरुपण उपलब्ध है। __ इस प्रकार राशि के कृतयुग्म आदि भेदों को आधार बनाकर विविध दण्डकों में किया गया यह उपपात आदि द्वारों से वर्णन अत्यन्त उपयोगी एवं ज्ञानवर्द्धक है। 00 (१५६२)
SR No.090160
Book TitleDravyanuyoga Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages670
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size26 MB
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