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________________ १४७८ ३८-३९. एवं सागारोवउत्ता, अणागारोबउत्ता वि - विया. स. १३, उ. १, सु. ७ ३३. रयणप्पभापुढवीए संखेज्जवित्थडेसु निरयावासेसु नेरइयाणं संखाविसयाणं एगूणपज्ञासाणं पण्हाणं समाहाणं प. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नेरइएसु १. केवइया नेरइया पण्णत्ता ? २- ३९. केवइया काउलेस्सा जाव केवइया अणागारोवउत्ता पण्णत्ता ? ४०. केवइया अणंतरोययन्त्रगा पण्णत्ता ? ४१. केवइया परंपरोववन्नगा पण्णत्ता ? ४२. केवइया अणंतरोगाढा पण्णत्ता ? ४३. केवइया परंपरोगाढा पण्णत्ता ? ४४. केवइया अणंतराहारा पण्णत्ता ? ४५. केवइया परंपराहारा पण्णत्ता ? ४६. केवइया अणंतरपज्जत्ता पण्णत्ता ? ४७. केवइया परंपरपज्जत्ता पण्णत्ता ? ४८. केवइया चरिमा पण्णत्ता ? ४९. केवइया अचरिमा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नेरइएसु १. संखेज्जा नेरइया पण्णत्ता । २. संखेज्जा काउलेस्सा पण्णत्ता । ३-५. एवं जाव संखेज्जा सण्णी पण्णत्ता । ६. असण्णी सिय अस्थि, सिय नत्थि, जइ अत्थि जहणेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वाउकोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता। ७. संखेज्जा भयसिद्धिया पण्णत्ता। ८-२१. एवं जाव संखेज्जा परिग्गहसन्नोवउत्ता पण्णत्ता। २२. इथिवेदगा नत्थि । २३. पुरिसवेदगा नत्थि । २४. संखेज्जा नपुंसगवेदगा पण्णत्ता। २५. एवं कोहकसाई वि। २६. माणकसाई जहा असण्णी । २७२८. एवं जाय लोभकसाई। २९. संखेज्जा सोइदियोवउत्ता पण्णत्ता। ३०-३३. एवं जाव फासिंदियोवउत्ता । द्रव्यानुयोग - (२) ३८-३९. इसी प्रकार साकारोपयोग युक्त और अनाकारोपयोग युक्त नैरयिकों की उद्वर्तना भी कहनी चाहिए। ३३. रत्नप्रभा पृथ्वी के संख्यात विस्तृत नरकावासों में नैरयिकों के संख्यात विषयक ४९ प्रश्नों का समाधान प्र. भंते! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में १. कितने नारक कहे गए हैं? २- ३९. कापोतलेश्यी से अनाकारोपयोगयुक्त पर्यन्त के नारक कितने कहे गए हैं ? ४०. कितने अनन्तरोपपन्नक कहे गए हैं ? ४१. कितने परम्परोपपत्रक कहे गए हैं ? ४२. कितने अनन्तरावगाढ कहे गए हैं ? ४३. कितने परम्परावगाढ़ कहे गए हैं ? ४४. कितने अनन्तराहारक कहे गए हैं? ४५. कितने परम्पराहारक कहे गए हैं? ४६. कितने अनन्तरपर्याप्तक कहे गए हैं ? ४७. कितने परम्परपर्याप्तक कहे गए हैं? ४८. कितने चरम कहे गए हैं? ४९. कितने अचरम कहे गए हैं? उ. गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में १. संख्यात नैरयिक कहे गए हैं। २. संख्यात कापोतलेश्यी नैरयिक कहे गए हैं। ३-५. इसी प्रकार संज्ञी नैरयिकों पर्यन्त संख्यात कहना चाहिए। ६. असंज्ञी नैरयिक कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। ७. भवसिद्धिक जीव संख्यात कहे गए हैं। ८-२१. इसी प्रकार परिग्रहसंज्ञोपयोग युक्त पर्यन्त के नैरयिक संख्यात कहने चाहिए। २२. ( वहाँ) स्त्री वेदक नहीं होते। २३. पुरुषवेदक भी नहीं होते। २४. नपुंसकवेदी संख्यात कहे गए हैं। २५. इसी प्रकार क्रोधकषायी भी संख्यात होते हैं। २६. मानकषायी नैरयिकों का कथन असंज्ञी नैरयिकों क समान है। २७-२८. इसी प्रकार लोभकषायी पर्यन्त के नैरयिकों के विषय में भी कहना चाहिए। २९. श्रोत्रेन्द्रियोपयोगयुक्त नैरयिक संख्यात कहे गए हैं। ३०-३३. इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रियोपयोग युक्त पर्यन्त के नैरयिक संख्यात कहे गए हैं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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