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________________ वुक्कंति अध्ययन १४५७ उ. गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा,असंखेज्जा वा उववज्जंति। दं.३-११.एवं जाव थणियकुमारा विभाणियव्या। प. दं. १२. पुढविकाइया णं भंते ! एगसमएणं केवइया उववज्जति? उ. गोयमा ! अणुसमयं अविरहियं असंखेज्जा उववज्जति। दं.१३-१५. एवं आउ, तेऊ, वाउकाइया। उ. गौतम !(वे) जघन्य एक, दो या तीन, उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। दं. ३-११. इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. द.१२. भंते ! पृथ्वीकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! (वे) प्रति समय बिना विरह (अन्तर) के असंख्यात उत्पन्न होते हैं। दं. १३-१५. इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के विषय में कहना चाहिए। प्र. दं. १६. भंते ! वनस्पतिकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! स्वस्थान (वनस्पतिकाय) में उत्पत्ति की अपेक्षा प्रतिसमय बिना विरह के अनन्त (वनस्पति जीव) उत्पन्न होते हैं। परस्थान में उत्पत्ति की अपेक्षा प्रति समय बिना विरह के अंसख्यात (वनस्पतिजीव) उत्पन्न होते हैं। प्र. दं. १७. भंते ! द्वीन्द्रिय जीव एक समय में कितने उत्पन्न प. दं. १६. वणस्सइकाइया णं भंते ! एगसमए णं केवइया उववज्जति? उ. गोयमा ! सट्ठाणुववायं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया अणंता उववति। होते हैं? परट्ठाणुववायं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा उववज्जति। प. दं. १७. बेइंदिया णं भंते ! केवइया एगसमए णं उववज्जति? उ. गोयमा !जहण्णेणं एगोवा, दोवा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा,असंखेज्जा वा उववज्जतिरे| दं. १८-२४. एवं तेइंदिया, चउरिंदिया, सम्मुच्छिमपंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया, गब्भवक्कंतिय-पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया, सम्मुच्छिममणूसा, वाणमंतर, जोइसिय, सोहम्मीसाण-सणंकुमारमाहिंद-बंभलोए-लंतग-सुक्क-सहस्सारकप्पदेवाय एए जहा नेरइया। गब्भवक्कंतियमणूस-आणय-पाणय-आरण-अच्चुयगेवेज्जग-अणुत्तरोववाइया य, एए जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति३। -पण्ण. प.६, सु. ६२६-६३५ १४. एगसमए सिद्धाणं सिज्झणा संखा परूवणं प. सिद्धाणं भंते ! एगसमएणं केवइया सिझंति? उ. गोयमा !जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं अट्ठसयं। -पण्ण. प.६,सु.६३६ १५. चउवीसदंडएसुअणंतरोववण्णगत्ताइ परूवणंप. दं. १.नेरइया णं भंते ! किं अणंतरोवण्णगा परंपरोववण्णगा,अणंतरपरपंर अणुववण्णगा? उ. गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन, उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। दं. १८-२४. इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक, गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक, सम्मूर्छिम मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र एवं सहनारकल्प के देवों की उत्पत्ति की प्ररूपणा नैरयिकों के समान करनी चाहिए। गर्भज मनुष्य आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, (नौ) ग्रैवेयक, (पांच) अनुत्तरोपपातिक देव, जघन्य एक, दो या तीन, उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। १४. एक समय में सिद्धों के सिद्ध होने की संख्या का प्ररूपण प्र. भंते ! एक समय में कितने सिद्ध होते हैं ? उ. गौतम !(वे) जघन्य एक, दो या तीन, ___उत्कृष्ट एक सौ आठ सिद्ध होते हैं। १५. चौबीस दंडकों में अनंतरोपपन्नकादि का प्ररूपण प्र. दं.१.भंते ! क्या नैरयिक अनन्तरोपपन्नक हैं, परम्परोपपन्नक हैं या अनन्तरपरम्परानुपपन्नक हैं? १. (क) प. उप्पलपत्तेणं भतें !जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति? उ. गोयमा !जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति। -विया.स.११,उ.१.सु.६ (ख) प. अहणं भंते ! साली-वीही-गोधूम-जव-जवजवाणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजति ? उ. गोयमा !जहण्णेणं एक्कोवा, दोवा,तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति। -विया.स.२१,उ.१,सु.४ (ग) विया.स.२१,उ.२-८ (घ) विया.स.२२,उ.१-६ (ङ) विया.स.२३,उ.१-५ २. विया.स.२४,उ.१२.सु.१९ ३. जीवा. पडि.३,सु.२०१ ई.
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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