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________________ दुक्कति अध्ययन ५. अंडजाइ जीवाणं गइ-आगइ परूवणं अंडजा अट्ठगइया अठ्ठआगइया पण्णत्ता,' तं जहा१. अंडजे-अंडजेसु उववज्जमाणे अंडजेहिंतो वा, २. पोतजेहिंतो वा, ३. जराउजेहिंतोवा, ४. रसजेहिंतो वा, ५. संसेयगेहिंतो वा, ६. सम्मुच्छिमेहिंतो वा, ७. उभिएहिंतो वा, ८. उववाइएहिंतो वा उववज्जेज्जा, १. से चेवणं से अंडगे अंडगत्तं विप्पजहमाणे अंडगत्ताए वा, २. पोतगत्ताए वा, ३. जराउजत्ताएवा, ४. रसजत्ताए वा, ५. संसेयगत्ताए वा, ६. सम्मुच्छिमत्ताए वा, ७. उब्भियत्ताए वा, ८. उववाइयत्ताए वा गच्छेज्जा। एवं पोतजा वि,जराउया वि, १४३९ ५. अण्डज आदि जीवों की गति-आगति का प्ररूपण अण्डज आठ गति और आठ आगति वाले कहे गए हैं, यथा१. जो जीव अण्डज योनि में उत्पन्न होता है वह अण्डज, २. पोतज, ३. जरायुज, ४. रसज, ५. संस्वेदज. ६. सम्मूर्छिम, ७. उद्भिज्ज और ८. औपपातिक इन आठों योनियों से आता है। १. जो जीव अण्डज अण्जत्व योनि को छोड़कर दूसरी योनि में जाता है वह अण्डज, २. पोतज, ३. जरायुज, ४. रसज, ५. संस्वेदज, ६. सम्मूछिम, ७. उद्भिज्ज और ८. औपपातिक-इन आठों योनियों मेंजाता है। इसी प्रकार पोतज और जरायुज जीवों की भी गति और आगति आठ प्रकार की कहनी चाहिए। शेष जीवों की गति और आगति (आठ प्रकार की) नहीं होती है। ६. चातुर्गतिक जीवों की सान्तर निरन्तर उत्पत्ति का प्ररूपणप्र. भन्ते ! क्या नैरयिक सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर (लगातार) उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते है और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! क्या तिर्यञ्चयोनिक जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! क्या मनुष्य सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम !(वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। प्र. भन्ते ! क्या देव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम !(वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। ७. चार गतियों के उपपात का विरहकाल प्ररूपण प्र. भन्ते ! नरकगति कितने काल तक उपपात से विरहित कही ६. सेसाणं गईरागई णत्थि। -ठाणं अ.८, सु.५९५/२ ६. चउगईय जीवाणं संतरं निरंतरं उववज्जण परूवणंप. नेरइयाणं भंते ! किं संतरं उववजंति, निरंतर उववज्जति? . उ. गोयमा ! संतरं पिउववज्जंति, निरंतरं पि उववज्जति।२ पा प. तिरिक्खजोणियाणं भंते ! किं संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जंति? उ. गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतर पि उववति । प. मणुस्साणं भंते ! किं संतरं उववज्जति, निरंतरं उववज्जति? उ. गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतरं पिउववज्जति। प. देवाणं भंते ! किं संतरं उववज्जति, निरंतर उववज्जति? उ. गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतरं पि उववज्जति। -पण्ण प.६, सु. ६०९-६१२ ७. चउग्गईणं उववाय-विरहकाल परूवणंप. निरयगईणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? उ. गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। प. तिरियगईणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? उ. गोयमा !जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। उ. गौतम ! (वह) जघन्य (कम से कम) एक समय, उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक। प्र. भन्ते ! तिर्यञ्चगति कितने काल तक उपपात से विरहित कही गई है? उ. गौतम ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक। १. ठाणं अ.७, सु.५४३/२ २. विया. स.९, उ. ३२, सु.३
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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