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________________ १४२७ देव गति अध्ययन २. नो गब्भाओ जोणिं साहरइ, ३. नो जोणीओ जोणिं साहरइ, अव्वाबाहेणं अव्वाबाह ४. परामसिय-परामसिय जोणिओ गब्भं साहरइ। प. पभू णं भंते ! हरिणेगमेसी सक्कस्सदूते इत्थीगमं नहसिरंसि वा, रोमकूवंसि वा, साहरित्तए वा, नीहरित्तए वा? उ. हंता, गोयमा ! पभू, नो चेव णं तस्स गब्भस्स किंचि वि आबाहं वा, विबाहं वा, उप्पाएज्जा, छविच्छेदं पुण करेज्जा एंसुहुमं साहरिज्ज वा,नीहरिज्ज वा। -विया. स.५, उ.४, सु. १५-१६ ५७. महिड्ढिया देवाणं तिरियपव्ययाइ उल्लंघन-पल्लंघन सामत्थासामत्थ परूवणंप. देवे णं भंते ! महिड्ढिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू तिरियपव्वयं वा, तिरियभित्तिं वा, उल्लंघेत्तएवा, पल्लंघेत्तएवा? उ. गोयमा ! नो इणढे समढे। प. देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरियपव्वयं वा, तिरियभित्तिं वा, उल्लंघेत्तए वा, पल्लंघेत्तए वा? उ. हंता, गोयमा ! पभू। -विया. स. १४, उ. ५, सु. २१-२२ ५८. अप्पिड्ढियाइ देव-देवीणं परोप्पर मझमज्झेणं गमणसामत्थ परूवणंप. अप्पिड्ढिए णं भंते ! देवे से महिड्ढियस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीईवएज्जा? उ. गोयमा !णो इणढे समढे। प. समिड्ढिए णं भंते ! देवे समिड्ढियस्स देवस्स मज्झमझेणं वीईवएज्जा? उ. गोयमा ! णो इणढे समढे, पमत्तं पुण वीईवएज्जा।' २. गर्भाशय से गर्भ को लेकर उसे योनि द्वारा दूसरी स्त्री के उदर में नहीं रखता, ३. योनि से गर्भ को निकालकर योनि द्वारा दूसरी स्त्री के पेट में नहीं रखता, ४. किन्तु अपने हाथ से गर्भ को स्पर्श करके बिना किसी बाधा के उसे योनि द्वारा बाहर निकाल कर दसरी स्त्री के गर्भाशय में रख देता है। प्र. भंते ! क्या शक्रदूत हरिणैगमेषी देव, स्त्री के गर्भ को नखाग्र द्वारा या रोमकूप द्वारा गर्भाशय में रखने या गर्भाशय से निकालने से समर्थ है? उ. हाँ, गौतम ! (हरिणैगमेषी देव) समर्थ हैं। वह देव उस गर्भाशय को थोड़ी या कुछ भी पीड़ा नहीं पहुँचाता किन्तु उस गर्भ का छविच्छेद (छेदन-भेदन) करता है, इतनी सूक्ष्मता से अंदर रखता है अथवा अंदर से बाहर निकालता है। ५७. महर्द्धिकादि देव का तिर्यक पर्वतादि के उल्लंघन प्रलंघन के सामर्थ्य-असामर्थ्य का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना तिरछे पर्वत को या तिरछी भींत को एक बार उल्लंघन करने में या बार-बार उल्लंघन करने में समर्थ है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके तिरछे पर्वत को या तिरछी भींत को एक बार उल्लंघन करने में या बार-बार उल्लंघन करने में समर्थ है? उ. हाँ, गौतम ! समर्थ है। ५८. अल्पऋद्धिक आदि देव-देवियों का परस्पर मध्य में से गमन सामर्थ्य का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या अल्पऋद्धिक देव, महर्द्धिक देव के बीच में से होकर जा सकता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! क्या समर्द्धिक (समान शक्ति वाला) देव समर्द्धिक देव . के बीच में से होकर जा सकता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, समान समृद्धि वाले देव के प्रमत्त (असावधान) होने पर जा सकता है। प्र. भंते ! क्या वह देव, उस (समर्द्धिक देव) को विमोहित करके जा सकता है या विमोहित किये बिना जा सकता है? उ. गौतम ! वह देव विमोहित करके जा सकता है, विमोहित किये बिना नहीं जा सकता है। प्र. भंते ! क्या वह (समान ऋद्धि वाले) देव को पहले विमोहित करके बाद में जाता है या पहले जाकर बाद में विमोहित करता है? उ. गौतम ! वह देव पहले उसे विमोहित करता है और बाद में जाता है परन्तु पहले जाकर बाद में विमोहित नहीं करता है। प. सेणं भंते ! किं विमोहेत्ता पभू, अविमोहेत्ता पभू? उ. गोयमा ! विमोहेत्ता पभू, नो अविमोहेत्ता पभू। प. से भंते ! किं पुव्विं विमोहेत्ता, पच्छा वीईवएज्जा। पुव्विं वीईवएज्जा, पच्छा विमोहेज्जा? उ. गोयमा ! पुव्विं विमोहेत्ता पच्छा वीईवएज्जा। णो पुव्विं वीईवएत्ता पच्छा विमोहेज्जा। १. विया.स.१४,उ.३,सु.१०-११
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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