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________________ १३६२ ८३. अंतो वाहिं वण दिट्ठतेन पुरिसाणं चउभंग परूवणं (१) चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहा १. अंतोसल्ले णाममेगे, णो बाहिंसल्ले, २. बाहिसल्ले णाममेगे, णो अंतोसल्ले, ३. एगे अंतोसल्ले वि, बाहिंसल्ले वि ४. एगे णो अंतोसल्ले, णो बाहिसल्ले। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तं जहा १. अंतोसल्ले णाममेगे, णो बाहिंसल्ले, २. बाहिंसल्ले णाममेगे, णो अंतोसल्ले, ३. एगे अंतोसल्ले वि, बाहिंसल्ले वि, ४. एगे जो अंतोसल्ले, णो बाहिंसल्ले। (२) चतारि वणा पण्णत्ता, तं जहा१. अंतोदुट्ठे णाममेगे, णो बाहिंदुट्ठे, २. बाहिंदुट्ठे णाममेगे, णो अंतोदुट्ठे, ३. एगे अंतोदुट्ठे वि, बाहिंदुट्ठे वि, ४. एगे णो अंतोट्ठे वि, बाहिंदुट्ठे वि एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा१. अंतो दुट्ठे णाममेगे, णो बाहिंदुट्ठे, २. बाहिंदुडे णाममेगे, जो अंतोदुट्ठे, ३. एगे अंतोदुट्ठे वि, बाहिंदुट्ठे वि, ४. एगे णो अंतोदुट्ठे, णो बाहिंदुट्ठे । - ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३४४ ८४. मेहस्स चउ पगारा तस्स लक्खणं च(१) चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा १. पुक्खलसंवट्टए २. पज्जुणे ३. जीमूए, ४. जिम्मे , महामेहे एगेणं वासेण १. पुक्खलसंवट्टए णं दसवाससहस्साई भावे । २. पज्जुण्णे णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवाससयाई भावेइ । द्रव्यानुयोग - ( २ ) ८३. अंतर - बाह्य व्रण के दृष्टांत द्वारा पुरुषों के चतुर्भगों का प्ररूपण (१) व्रण चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. कुछ व्रण अन्तःशल्य (आन्तरिक घाव) वाले होते हैं, किन्तु बाह्यशल्य वाले नहीं होते हैं, २. कुछ व्रण बाह्यशल्य वाले होते हैं, किन्तु अन्तःशल्य वाले नहीं होते हैं, ३. कुछ व्रण अन्तःशल्य वाले भी होते हैं और बाह्यशल्य वाले भी होते हैं, ४. कुछ व्रण न अन्तःशल्य वाले होते हैं और न बाह्यशल्य वाले होते हैं। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. कुछ पुरुष अन्तःशल्य वाले होते हैं, किन्तु बाह्यशल्य वाले नहीं होते हैं, २. कुछ पुरुष बाह्यशल्य वाले होते हैं, किन्तु अन्तःशल्य वाले नहीं होते हैं, ३. कुछ पुरुष अन्तःशल्य वाले भी होते हैं और बाह्यशल्य वाले भी होते हैं, ४. कुछ पुरुष न अन्तःशल्य वाले होते हैं और न बाह्यशल्य वाले होते हैं। (२) व्रण चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. कुछ व्रण अन्तः दुष्ट (अन्दर से विकृत) होते हैं किन्तु बाहर से विकृत नहीं होते हैं, २. कुछ व्रण बाहर से विकृत होते हैं, किन्तु अन्दर से विकृत नहीं होते हैं, ३. कुछ व्रण अन्दर से भी विकृत होते हैं और बाहर से भी विकृत होते हैं, ४. कुछ व्रण न अन्दर से विकृत होते हैं और न बाहर से विकृत होते हैं। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. कुछ पुरुष अन्तः दुष्ट (अन्दर से विकृत) होते हैं, किन्तु बाहर से विकृत नहीं होते हैं, २. कुछ पुरुष बाहर से विकृत होते हैं, किन्तु अन्दर से विकृत नहीं होते हैं, ३. कुछ पुरुष अन्दर से भी विकृत होते हैं और बाहर से भी विकृत होते हैं, ४. कुछ पुरुष न अन्दर से विकृत होते हैं और न बाहर से विकृत होते हैं। ८४. मेघ के चार प्रकार और उनका लक्षण(१) मेघ चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. पुष्कलसंवर्तक, २. प्रद्युम्न, ३. जीमूत, ४. जिम्ह । १. पुष्कलसंवर्तक महामेघ एक बार बरस कर दस हजार वर्ष तक पृथ्वी को स्निग्ध कर देता है, २. प्रद्युम्न महामेघ एक बार बरसकर एक हजार वर्ष तक पृथ्वी स्निग्ध कर देता है,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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