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________________ तिर्यञ्च गति अध्ययन १२८३ उ. गोयमा ! नो सण्णी,असण्णी वा, असण्णिणो वा। २५. इंदियदारंप. ते णं भंते !जीवा किं सइंदिया, अणिंदिया? उ. गोयमा ! नो अणिंदिया,सईदिए वा, सइंदिया वा।। २६. अणुबंधदारंप. से णं भंते ! उप्पलजीवे त्ति कालओ केवचिर होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जंकाल। २७. संवेहदारंप. से णं भंते ! उप्पलजीवे पुढविजीवे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति . केवइयं कालं से सेवेज्जा केवइयं कालं गइरागई करेज्जा? उ. गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाई भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, एवइयं कालं सेवेज्जा एवइयं कालं गइरागई करेज्जा। एवं जहा पुढवीजीवे भणिए तहा जाव वाउजीवे भाणियव्वे। उ. गौतम ! वे संज्ञी नहीं हैं किन्तु एक जीव भी असंज्ञी है और अनेक जीव भी असंज्ञी हैं। २५. इन्द्रिय द्वारप्र. भंते ! वे जीव सइन्द्रिय हैं या अनिन्द्रिय हैं ? उ. गौतम ! वे अनिन्द्रिय नहीं हैं किन्तु एक जीव भी सइन्द्रिय है और अनेक जीव भी इन्द्रिय हैं। २६. अनुबंध द्वार प्र. भंते ! वह (उत्पल का) जीव उत्पल जीव के रूप में कितने ___ काल तक रहता है? उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है। २७. संवेध द्वारप्र. भंते ! वह उत्पल जीव पृथ्वीकाय में जाए और पुनः उत्पल जीव के रूप में उत्पन्न हो तो उसका कितना काल व्यतीत होता है और कितने काल तक गति-आगति करता है? उ. गौतम ! वह भव की अपेक्षा जघन्य दो भव ग्रहण करता है, उत्कृष्ट असंख्यात भव ग्रहण करता है, काल की अपेक्षा जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंख्यात काल जितने काल तक रहता है और इतने काल तक गति-आगति करता है। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीव के विषय में कहा, उसी प्रकार गमनागमन आदि के लिए वायुकायिक जीव पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. भन्ते ! वह उत्पल जीव वनस्पति जीव के रूप में उत्पन्न हो और वह वनस्पति जीव पुनः उत्पल जीव के रूप में उत्पन्न हो जाए इस प्रकार वह कितने काल तक रहता है, कितने काल तक गति-आगति करता है? उ. गौतम ! भवादेश से वह जघन्य दो भव ग्रहण करता है, उत्कृष्ट अनन्त भव ग्रहण करता है। कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल जितने काल और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। प्र. भंते ! वह उत्पल जीव द्वीन्द्रियजीव के रूप में उत्पन्न हो और वह द्वीन्द्रिय जीव पुनः उत्पलजीव के रूप में उत्पन्न हो जाए इस प्रकार वह कितने काल तक रहता है और कितने काल तक गति-आगति करता है? उ. गौतम ! भवादेश से वह जघन्य दो भव ग्रहण करता है, उत्कृष्ट संख्यात भव ग्रहण करता है। कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात काल जितना काल वह उसमें रहता है और इतने ही काल तक वह गति-आगति करता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव के विषय में भी जानना चाहिए। प. से णं भंते ! उप्पलजीवे से वणस्सइजीवे, से वणस्सइजीवे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति केवइयं काल सेवेज्जा केवइयं कालं गइरागई करेज्जा? उ. गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं अणंतंकालं-तरुकालो, एवइयं कालं से सेवेज्जा, एवइयं कालं गइरागई करेज्जा। प. से णं भंते ! उप्पलजीवे से बेइंदियजीवे, से बेइंदियजीवे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति केवइयं काल से सेवेज्जा, केवइयं कालंगइरागई करेज्जा? उ. गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं संखेज्जंकालं, एवइयं कालं से सेवेज्जा, एवइयं कालं गइरागई करेज्जा। एवं तेइंदियजीवे, एवं चरिंदियजीवे वि।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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