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________________ १२८४ प. से णं भंते ! उप्पलजीवे पंचेंदियतिरिक्खजोणियजीवे, पंचेंदियतिरिक्खजोणियजीवे, पुणरवि उप्पलजीवे त्ति केवइयं कालं से सेवेज्जा, केवइयं कालं गइरागई करेज्जा? उ. गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालादेसेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहत्तं एवइयं कालं से सेवेज्जा, एवइयं कालं गइरागई करेज्जा। एवं मणुस्सेण वि समं जाव एवइयं कालं गइराइगई करेज्जा। २८. आहारदारंप. तेणं भंते ! जीवा किं आहारमाहारेंति? उ. गोयमा ! दव्वओ अणंतपदेसियाई दव्वाई, खेत्तओ असंखेज्जपदेसोगाढाई, कालओ अण्णयरकालट्ठिइयाई, भावओ वण्णमंताई, गंधमंताईं, रसमंताई, फास मंताई, एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सइकाइयाणं आहारो तहेव जाव सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति। णवरं-नियमा छद्दिसिं। सेसं तं चेव। २९. ठिई दारंप. तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? उ. गोयमा !जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साई। ३०. समुग्घायदारं प. तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ समुग्धाया पन्नत्ता? उ. गोयमा ! तओ समुग्घाया पन्नत्ता,तं जहा १. वेयणासमुग्घाए, २. कसायसमुग्घाए, ३. मारणंतियसमुग्घाए। प. ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंति,असमोहया मरंति? उ. गोयमा ! समोहया विमरंति,असमोहया विमरंति। द्रव्यानुयोग-(२) प्र. भंते ! वह उत्पल का जीव पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव के रूप में उत्पन्न हो और वह पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव पुनः उत्पल जीव के रूप उत्पन्न हो जाए तो इस प्रकार कितने काल तक रहता है और कितने काल तक गति-आगति करता है ? उ. गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव ग्रहण करता है, उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है, कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व जितने काल तक रहता है और इतने ही काल तक गति-आगति करता है। इसी प्रकार मनुष्योनिक के विषय में भी जानना चाहिए यावत् इतने काल तक गति-आगति करता है। २८. आहार द्वार प्र. भन्ते ! वे जीव किस पदार्थ का आहार करते हैं ? उ. गौतम ! वे द्रव्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं, क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशावगाढ द्रव्यों का आहार करते हैं, काल से अन्यतर काल स्थिति वाले द्रव्यों का आहार करते हैं, भाव से वर्ण वाले, गंध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले पदार्थों का जैसा (प्रज्ञापनासूत्र अट्ठाईसवें पद के) आहार उद्देशक में वनस्पतिकायिक जीवों के आहार के लिए कहा उसी प्रकार यावत् सर्वात्मना आहार करते हैं। विशेष-वे नियमतः छहों दिशाओं से आहार करते हैं। शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। २९. स्थिति द्वारप्र. भंते ! उन जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उ. गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की कही गई है। ३०. समुद्घात द्वार प्र. भंते ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गए हैं ? उ. गौतम ! तीन समुद्घात कहे गए हैं, यथा १. वेदनासमुद्घात, २. कषायसमुद्घात, ३. मारणान्तिकसमुद्घात। प्र. भंते ! वे जीव मारणान्तिकसमुद्घात द्वारा समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर मरते हैं? उ. गौतम ! वे समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। ३१. च्यवन (उद्वर्तन) द्वारप्र. भन्ते ! वे (उत्पल के) जीव उद्वर्तित हो (मरकर) कहां जाते हैं और कहां उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं? मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं या देवों में उत्पन्न होते हैं? ३१. चवण (उव्वट्टण) दारंप. ते णं भंते !जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववज्जति? किं नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति, मणुस्सेसु उववजंति, देवेसु उववज्जंति?
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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