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________________ (तिर्यञ्च गति अध्ययन ३६. उप्पलपत्ते एग-अणेगजीववियारो प. उप्पले णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे? उ. गोयमा ! एगजीवे, नो अणेगजीवे। तेण परं जे अन्ने जीवा उववज्जति, ते णं णो एगजीवा अणेगजीवा। १. उववायदारंप. ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जति? किं नेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मणुस्सेहिंतो उववज्जंति, देवेहिंतो उववज्जंति? उ. गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहितो वि उववजंति, मणुस्सेहिंतो वि उववज्जति, देवेहितो वि उववज्जति। एवं उववाओ भाणियव्वो जहा वक्कंतिए वणस्सईकाइयाणं जाव ईसाणो त्ति। - १२७९ ) ३६. उत्पल पत्र में एक-अनेक जीव विचारप्र. भंते ! एक पत्र वाला उत्पल (कमल) एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला है? उ. गौतम ! एक पत्र वाला उत्पल एक जीव वाला है, अनेक जीव वाला नहीं है। इसके उपरान्त उस में जो दूसरे पत्ते उत्पन्न होते हैं, वे एक जीव वाले नहीं हैं अनेक जीव वाले हैं। १. उपपातद्वारप्र. भंते ! वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं? क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, देवों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं, वे तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार (प्रज्ञापना के) छठे व्युत्क्रांतिपद में बताये गए वनस्पतिकायिक जीवों में ईशान देवलोक पर्यन्त के जीवों का उपपात कहना चाहिए। २. परिमाण द्वारप्र. भंते ! एक समय में वे जीव कितने उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। ३. अपहार द्वारप्र. भंते ! वे जीव प्रत्येक समय में एक-एक निकाले जाएँ तो कितने काल में अपहृत हो सकते हैं? उ. गौतम ! वे असंख्यात जीव हैं। यदि प्रत्येक समय में एक-एक निकाले जाएँ तो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल जितने समय तक उनका अपहरण होता है तो भी उन जीवों का अपहरण नहीं हो सकता है। ४. ऊँचाई (अवगाहना) द्वारप्र. भंते ! उन जीवों की शरीर अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है? उ. गौतम ! उनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट कुछ अधिक एक हजार योजन की है। ५. ज्ञानावरणादिबंध द्वारप्र. भंते ! वे जीव, ज्ञानावरणीय कर्म के बंधक हैं या अबंधक हैं ? २. परिमाणदारंप. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति? उ. गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति। ३. अवहारदारंप. ते णं भंते ! जीवा समए-समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा केवइ कालेणं अवहीरंति? - उ. गोयमा ! ते णं असंखेज्जा समए-समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेज्जाहिं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहिं अवहीरंति,नो चेवणं अवहिया सिया। ४. उच्चत्त (ओगाहणा) दारंप. तेसिणं भंते ! जीवाणं के महालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? उ. गोयमा !जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं। ५. णाणावरणाइबंधदारंप. ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधगा अबंधगा? उ. गोयमा ! नो अबंधगा, बंधए वा, बंधगा वा। उ. गौतम ! वे (ज्ञानावरणीय कर्म के) अबंधक नहीं हैं, किन्तु एक जीव भी बंधक है और अनेक जीव भी बंधक हैं। इसी प्रकार (आयु कर्म को छोड़कर) अन्तराय कर्म पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष एवं जाव अंतराइयस्साणवरं १. वक्तंति अध्ययन में देखें (पण्ण. प.६, सु.६५३)
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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