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________________ ( १२६२) ३५. तिरिय गई अज्झयणं द्रव्यानुयोग-(२) ३५. तिर्यञ्च गति-अध्ययन सूत्र सूत्र १. पडुप्पन्न छज्जीवणिकाइयाणं निल्लेवणा काल परूवणंप्र. पडुप्पन्नपुढविकाइया णं भन्ते ! केवइकालस्स णिल्लेवा सिया? उ. गोयमा ! जहण्णपए असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि ओसप्पिणीहि, उक्कोसपए वि असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं। जहण्णपए उक्कोसपए असंखेज्जगुणाओ। एवं जाव पडुप्पन्नवाउक्काइया। प. पडुप्पन्नवणप्फइकाइया णं भंते ! केवइकालस्स निल्लेवा सिया? गोयमा ! पडुप्पन्नवणप्फइकाइया जहण्णपए अपदा उक्कोसपए वि अपदा, पडुप्पन्नवणप्फइकाइयाणं णत्थि निल्लेवणा। १. प्रत्युत्पन्न षट्कायिक जीवों के निर्लेपन काल का प्ररूपणप्र. भंते ! तत्काल उत्पन्न पृथ्वीकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं? उ. गौतम ! जघन्यतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल में और उत्कृष्टतः असंख्यात उत्सर्पिर्णी अवसर्पिणी काल में निर्लेप (खाली) हो सकते हैं। जघन्य पद से उत्कृष्ट पद असंख्यातगुणा अधिक जानना चाहिए। इसी प्रकार तत्काल उत्पन्न वायुकायिक पर्यन्त निर्लेप का कथन जानना चाहिए। प्र. भन्ते ! तत्काल उत्पन्न वनस्पतिकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं? उ. गौतम ! तत्काल उत्पन्न वनस्पतिकायिकों का जघन्य और उत्कृष्ट पद में निर्लेप होने का कथन नहीं किया जा सकता, क्योंकि (अनन्त होने से) तत्काल उत्पन्न वनस्पतिकायिकों की निर्लेपना नहीं हो सकती है। प्र.. भन्ते ! तत्काल उत्पन्न त्रसकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं? उ. गौतम ! तत्काल उत्पन्न त्रसकायिक जघन्य पद में सागरोपम शतपृथक्त्व और उत्कृष्ट पद में भी सागरोपम शतपृथक्त्व काल में निर्लेप हो सकते हैं। जघन्य पद से उत्कृष्ट पद विशेषाधिक है। २. त्रस और स्थावरों के भेदों का प्ररूपण त्रस जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. तेजस्कायिक, २. वायुकायिक, ३. उदार त्रसप्राणी। स्थावर जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. वनस्पतिकायिक। प. पडुप्पन्नतसकाइया णं भंते ! केवइकालस्स निल्लेवा सिया? उ. गोयमा ! पडुप्पन्नतसकाइया जहण्णपए सागरोवमसयपुहत्तस्स, उक्कोसपए सागरोवमसय पुहत्तस्स। जहण्णपदे उक्कोसपदे विसेसाहिया। -जीवा.३,उ.२,सु.१०१(२) २. तस थावराणं भेय परूवणं तिविहा तसा पन्नत्ता,तं जहा१. तेउकाइया,२.वाउकाइया,३.उराला तसा पाणा। तिविहा थावरा पन्नत्ता,तं जहा१. पुढविकाइया,२.आउकाइया, ३. वणस्सइकाइया। । -ठाणं. अ.३, उ.२,सु.१७२ ३. जीवाणं काय विवक्खया भेया दो काया पण्णत्ता,तं जहा१. तसकाए चेव २. थावरकाए चेव। तसकाए दुविहे पण्णत्ते,त्तं जहा१. भवसिद्धिए चेव। २. अभवसिद्धिए चेव। थावरकाए दुविहे पण्णत्ते,तं जहा१. भवसिद्धिए चेव, २. अभवसिद्धिए चेव। -ठाण.अ.२, उ.१,सु.६५ ४. थावर काय भेया तेसिं अधिपती य परूवणं पंच थावरकाया पण्णत्ता,तं जहा ३. जीवों के काय की विवक्षा से भेद काय दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. त्रसकाय, २. स्थावरकाय। त्रसकाय दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. भवसिद्धिक-मुक्ति के लिए योग्य, २. अभवसिद्धिक-मुक्ति के लिए अयोग्य। स्थावरकाय दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. भवसिद्धिक, २. अभवसिद्धिक। ४. स्थावरकायों के भेद और उनके अधिपतियों का प्ररूपण पांच स्थावरकाय कहे गए हैं, यथा
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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