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________________ तिर्यञ्च गति अध्ययन १२६१ अल्प-बहुत्व की दृष्टि से सबसे अल्प पंचेन्द्रिय जीव हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक है। उनसे त्रीन्द्रिय एवं द्वीन्द्रिय जीव उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं। यदि एकेन्दिर्य का कथन किया जाय तो वे अनन्तगुणे हैं। वनस्पतिकाय के कुछ प्रकारों का इस अध्ययन में ३२ द्वारों से निरूपण हुआ है, जो वनस्पति के विभिन्न प्रकारों एवं उनकी विशेषताओं को जानने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। इसमें उत्पादि, शालिव्रीहि आदि, कल-मसूरादि, अलसी कुसुम्ब आदि, बांस-वेणु आदि के मूल कंदादि, के अतिरिक्त इक्षु-इक्षुवाटिका के मूलकंदादि, सेडिय भंतिय आदि के मूल कंदादि, का वर्णन है। इनके अलावा अभ्ररूहादि, तुलसी आदि, ताल-तमाल आदि नीम-आम आदि, अस्थिक आदि, बैंगन आदि के गुच्छों, सिरियकादि गुल्मों, पूसफलिका आदि वल्लियों, आलू-मूला आदि, लोही आदि, आय-कायादि, पाठादि, माषपर्णी आदि के मूल कंदादि का निरूपण है। शालवृक्ष, शालयष्टिका के भावीभव का प्ररूपण भी है। उत्पलादि वनस्पतियों का वर्णन जिन ३२ द्वारों में हुआ है, वे हैं-१. उपपात, २. परिमाण, ३. अपहार, ४. अवगाहना, ५. कर्मबन्ध, ६. वेदक, ७. उदय, ८. उदीरणा, ९. लेश्या, १0. दृष्टि, ११. ज्ञान, १२. योग, १३. उपयोग, १४. वर्ण-रसादि, १५. उच्छ्वास, १६. आहार, १७. विरति, १८. क्रिया, १९. बन्धक, २०. संज्ञा, २१. कषाय, २२. स्त्रीवेदादि, २३. बन्ध, २४. संज्ञी, २५. इन्द्रिय, २६. अनुबन्ध, २७. संवेध, २८. आहार, २९. स्थिति, ३०. समुद्घात, ३१. च्यवन और ३२. सभी जीवों का मूलादि में उपपात। इनमें से कुछ उल्लेखनीय बिन्दु इस प्रकार हैं १. एक पत्र (पंखुड़ी) वाला उत्पल एक जीवयुक्त होता है जबकि उसमें नये पत्र आने पर वह अनेक जीव वाला होता है। २. इनके भी सात या आठ (आयुकर्म सहित) कर्मों का बंध होता है। इसी प्रकार इन आठों का उदय एवं वेदन भी होता है। ३. आयुकर्म का बंधन वैकल्पिक है, उसमें / भंग बनते हैं। इसी प्रकार कर्म की उदीरणा में भी ८ भंग बनते हैं। ४. कृष्ण, नील, कापोत एवं तेजो लेश्या में से किसी के २ किसी के ३ एवं किसी के चारों लेश्याएँ होने से ८० भंग बनते हैं। ५. ये मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी एवं काययोगी होते हैं। इनमें साकार एवं अनाकार दोनों उपयोग होते हैं। ६. शरीर में वर्ण, रस, गंध एवं स्पर्श होते हैं, किन्तु जीव में नहीं। ७. उच्छवासक (सांस लेने), निःश्वासक (सांस निकालने) आदि के २६ भंग बनते हैं। ८. वे अविरत, सक्रिय, नपुंसकवेदी संज्ञी हैं। ९. आहारक-अनाहारक की दृष्टि से ८ भंग बनते हैं-कोई आहारक कोई अनाहारक आदि। १०. आहार संज्ञा आदि, क्रोध कषायी आदि के लेश्या के समान ८० भंग बनते हैं। ११. उत्पल का जीव उत्पल जीव के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है। किन्तु वह पृथ्वीकायादि, द्वीन्द्रियादि एवं पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकादि में जाता है एवं पुनः उत्पल के रूप में उत्पन्न होता है तो कम से कम दो भव ग्रहण करता है तथा उत्कृष्ट भव असंख्यात, संख्यात, अनन्त आदि भिन्न-भिन्न होते हैं। १२. सभी प्राणी, भूत, जीव एवं सत्व उत्पल के मूलरूप में, उत्पल के कन्दरूप में, उत्पल के नाल रूप में, उत्पल के पत्ररूप में, उत्पल के केसर रूप में, उत्पन्न की कर्णिका रूप में, उत्पल के थिबुक रूप में अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं। १३. इसी प्रकार शालूक, पलाश, कुम्भिक, नालिक, पद्म, कर्णिका, नलिन आदि में भी एक जीवत्व अनेक जीवत्व आदि का निरूपण किया गया है। १४. शालीव्रीहि आदि के मूलादि जीवों के भी ३२ द्वार कहे गए हैं। वृक्ष तीन प्रकार के होते हैं-१. संख्यात जीव वाले, २. असंख्यात जीव वाले और ३. अनन्त जीव वाले। ताड़, तमालि, नारियल आदि वृक्ष संख्यात जीव वाले होते हैं। असंख्यात जीव वाले वृक्ष दो प्रकार के होते हैं-१. एकास्थिक (एक बीज वाले), २. बहुबीजक (बहुत बीजों वाले)। नीम, आम, जामुन आदि के वृक्ष एकास्थिक होते हैं। इनकी जड़, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल भी असंख्यात जीव वाले होते हैं। पत्ते प्रत्येक जीव वाले, पुष्प अनेक जीव वाले एवं फल एक जीव वाले होते हैं। बहुबीजक वृक्षों में अस्तिक, तेंदु, कपित्थ आदि की गणना होती है। अनन्त जीव वाले वृक्षों में आलू, मूला, अदरक आदि का अन्तर्भाव होता है। अनन्त जीव वाले होने के कारण ही आलू आदि जमीकंदों को अरवाद्य बतलाया गया है। इस अध्ययन में सूक्ष्म स्नेहकाय (अप) के पतन, अल्पवृष्टि एवं महावृष्टि के कारणों, एहरन पर हथौड़ा मारने से वायुकाय की उत्पत्ति एवं विनाश, अचिन्त वायु के आक्रान्त आदि प्रकार आदि विषयों का भी निरूपण हुआ है। इस प्रकार इसमें सम्पूर्ण तिर्यञ्चगति का सामान्य एवं एकेन्द्रिय जीवों का विशेष वर्णन हुआ है। अन्य सम्बद्ध वर्णन वुक्कंति, गर्भ आदि अध्ययनों में द्रष्टव्य है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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