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________________ तिर्यञ्च गति अध्ययन १. इंदे थावरकाए, २. बंभे थावरकाए, ३. सिप्पे थावरकाए, ४. सम्मई थावरकाए, ५. पायावच्चे थावरकाए । पंच धायरकायाधिपती पण्णत्ता, तं जहा १. इंदे यावर कायाधिपती, २. बंधे थावरकायाधिपती, ३. सिप्पे थावरकायाधिपती, ४. सम्मई थावरकायाधिपती, ५. पायावच्चे थावरकायाधिपती । -ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३९३ ५. थायराइयाणं गइ अगइ समावण्णवाई विवक्खया दुविहत परुवर्ण दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं जहा १. गतिसमावण्णगा चेव, २. अगतिसमावण्णगा चेव । एवं जाव वणस्सइकाइया । दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं जहा १. अणंतरोगाढा चेव, २. परंपरोगाढा चैव । एवं जाव वणस्सइकाइया । दुविहा पुढविकाइया पण्णत्ता, तं जहा१. परिणया चैव, २. अपरिणया चैव । एवं जाव वणस्सइकाइया । -ठाणं. अ. २, उ. १, सु. ६३ ६. थावरकाइयाण जीवाणं परोप्परं ओगाढत परूवणं प. जत्थ णं भंते ! एगे पुढविकाइए ओगाढे तत्थ केवइया पुढविकाइया ओगाढा ? उ. गोयमा ! असंखेज्जा । प. केवइया आउक्काइया ओगाढा ? उ. असंखेज्जा प. केवइया तेउकाइया ओगाढा ? उ. असंखेज्जा । प. केवइया वाउक्काइया ओगाढा ? उ. असंखेज्जा । प. केवइया वणस्सकाइया ओगाढा ? उ. अणंता। १. इन्द्रस्थावर काय - पृथ्वीकाय, २. ब्रह्मस्थावरकाय-अप्काय, ३. शिल्पस्थावर काय - तेजस्काय, ४. सम्मतिस्थावर काय वायुकाय, ५. प्राजापत्यस्थावरकाय-वनस्पतिकाय । स्थावरकाय के पांच अधिपति कहे गए हैं, यथा १. इन्द्रस्थावरकायाधिपति, २. ब्रह्मस्थावरकायाधिपति ३. शिल्पस्थावारकायाधिपति, ४. सम्मतिस्थावरकावाधिपति, ५. प्राजापत्यस्थावरकायाधिपति । ५. स्थावरकायिकों की गति अगति समापत्रकादि की विवक्षा से द्विविधत्व का प्ररूपण पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. गतिसमापन्नक - एक भव से दूसरे भव में जाते समय अन्तराल गति में प्रवर्तमान। १२६३ २. अगतिसमापन्नक वर्तमान भव में स्थित । इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों पर्यन्त प्रत्येक के दो-दो भेद जानने चाहिए। पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. अनंतरावगाढ- वर्तमान समय में किसी आकाशदेश में स्थित । २. परम्परावगाढ - दो या अधिक समयों से किसी आकाशदेश में स्थित। इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों पर्यन्त प्रत्येक के दो-दो भेद जानने चाहिए। पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा 9. परिणत - बाह्य हेतुओं से अन्य रूप में परिवर्तित निर्जीव (अचित्त) हो गया हो। २. अपरिणत - अपरिवर्तित (सचित्त)। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त के दो-दो भेद जानने चाहिए। ६. स्थावरकायिक जीवों का परस्पर अवगाढत्व का प्ररूपण प्र. भन्ते जहाँ एक पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होता है, वहां दूसरे कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं? उ. प्र. उ. असंख्यात अवगाढ होते हैं। गौतम ! वहां असंख्यात (पृथ्वीकायिक जीव) अवगाढ होते हैं। कितने अप्कायिक जीव अवगाढ होते हैं ? प्र. कितने तेजस्कायिक जीव अवगाढ होते हैं ? उ. असंख्यात अवगाढ होते हैं। प्र. कितने वायुकायिक जीव अवगाढ होते हैं? उ. असंख्यात अवगाढ होते हैं। प्र. कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ होते हैं ? उ. अनन्त अवगाढ होते हैं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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