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________________ १२५८ ८. निरयपरिसामंतवासि पुढविकाइयाइ जीवाणं महाकम्पतराइ परूवणं प. इमीसे णं भन्ते रयणप्पभाए पुढवीए णिरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया ते णं जीवा महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, महावेदणतरा चेव ? उ. हंता, गोयमा ! इमीसे णं रयणयभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेस पुढविकाइया जाय वणस्सइकाइया ते णं जीवा महाकम्मतरा चेव जाव महावेदणतरा चेव । एवं जाव अहेसत्तमा । - विया. स. १३, उ, ४, सु. ११ द्रव्यानुयोग - (२) ८. नरकावासों के पार्श्ववासी पृथ्वीकायिकादि जीवों के महाकर्मतरादि का प्ररूपण प्र. भन्ते । इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के परिपार्श्व में जो पृथ्वीकायिक से वनस्पतिकायिक पर्यन्त जीव हैं क्या ये महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव और महावेदना वाले हैं ? उ. हाँ, गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों के परिपार्श्व में पृथ्वीकाय से वनस्पतिकायिक पर्यन्त जो जीव हैं वे महाकर्म यावत् महावेदना वाले हैं। इसी प्रकार अधः सप्तम पृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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