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________________ तिर्यञ्चगति अध्ययन तिर्यञ्च गति ही मात्र एक ऐसी गति है, जिसमें एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव विद्यमान हैं। काया की दृष्टि से भी पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक छहों काया के जीव तिर्यञ्चगति में उपलब्ध है। संख्या की दृष्टि से भी इसमें सबसे अधिक (अनन्त) जीव हैं। तिर्यञ्च गति के जीव चारों गतियों में जो संकेत हैं तथा चारों गतियों से आ सकते हैं। जीवों की जितनी विविधता तिर्यञ्चगति में है, उतनी अन्य किसी गति में नहीं है। इन्द्रियों की अपेक्षा से तिर्यञ्च जीव पाँच प्रकार के हैं-१. एकेन्द्रिय, २. द्वीन्द्रिय, ३. त्रीन्द्रिय, ४. चतुरिन्द्रिय और ५. पंचेन्द्रिय। काया की अपेक्षा से सामान्य जीवों के विभाजन की भाँति तिर्यञ्च जीव छह प्रकार के हैं-१. पृथ्वीकायिक, २. अकायिक, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक, ५. वनस्पतिकायिक और ६. त्रसकायिक। इनमें से प्रथम पाँच प्रकार एक इन्द्रिय वाले जीवों के हैं तथा त्रसकायिक में शेष द्वीन्द्रियादि समस्त तिर्यञ्च जीव आ जाते हैं। पृथ्वी ही जिनकी काया है ऐसे एकेन्द्रिय जीवों को पृथ्वीकायिक कहते हैं। अप् अर्थात् जल ही जिनकी काया है ऐसे एकेन्द्रिय जीव अकायिक कहलाते हैं। इसी प्रकार वायु जिनकी एवं वनस्पति ही जिनकी काया है वे जीव वनस्पतिकायिक कहे जाते हैं। ये पाँच प्रकार के जीव स्वतः गतिशील नहीं होने के कारण अथवा उनमें स्थावर नामकर्म का उदय होने के कारण स्थावर कहलाते हैं तथा शेष द्वीन्द्रियादि जीव हलन-चलन की क्रिया करने के कारण त्रसकायिक कहे जाते हैं। त्रस एवं स्थावर जीवों के एक अन्य विभाजन के अनुसार तेजस्कायिक एवं वायुकायिक जीवों को भी त्रस माना गया है क्योंकि ये दोनों एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर गति करते हुए देखे जाते हैं। इस विभाजन की अपेक्षा से काय दो प्रकार के हैं-त्रस और स्थावर। त्रस जीव तीन प्रकार के हैं-तेजस्कायिक, वायुकायिक और उदार त्रस प्राणी (द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक)। स्थावर भी तीन प्रकार के हैं-पृथ्वीकायिक, अकायिक और वनस्पतिकायिक स्थानांग सूत्र में स्थावरकाय के इन्द्र, ब्रह्म, शिल्प, सम्मति और प्राजापत्य ये पाँच नाम भी दिए गए हैं जिन्हें जैनाचार्यों ने क्रमशः पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु एवं वनस्पति काय का ही द्योतक माना है। वैदिक दृष्टि से ये इन्द्रादि शब्द शोध के विषय हैं। . प्रस्तुत अध्ययन में पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों का विविध प्रकार से विभिन्न द्वारों के माध्यम से वर्णन हुआ है। वनस्पतिकाय के उत्पल आदि भेदों का भी विस्तृत निरूपण हुआ है। द्वीन्द्रियादि एवं पंचेन्द्रिय जीवों का निरूपण प्रसंगानुसार हो गया है। यहाँ पर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय के जलचर, स्थलचर, खेचर, उपपरिसर्य और भुजपरिसर्य इन पाँच भेदों के विषय में चर्चा नहीं है। इनके सम्बन्ध में गर्भ, वुक्कंति आदि अध्ययन द्रष्टव्य हैं। एकेन्द्रिय जीव पाँच प्रकार के हैं :-१. पृथ्वीकायिक, २. अकायिक, ३. तेजस्कायिक, ४. वायुकायिक और ५. वनस्पतिकायिक। इन जीवों को गतिसमापन्नक एवं अगतियसमापन्नक, अनन्तरावगाढ़ एवं परम्परावगाढ़, परिणत (अचित्त) एवं अपरिणत (सचित्त) के आधार पर दो-दो भेदों में विभक्त किया गया है, किन्तु पृथ्वीकायिक आदि जीवों के प्रसिद्ध भेद हैं-१. सूक्ष्म और २. बादर। पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक पर्यन्त सभी एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म भी होते हैं तथा बादर भी होते हैं। सूक्ष्म जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि उन्हें काटा नहीं जा सकता, छेदा नहीं जा सकता, भेदा नहीं जा सकता एवं रोका नहीं जा सकता। ये जीव छद्मस्थ को दृष्टिगोचर भी नहीं होते हैं। बादर जीव अपेक्षाकृत स्थूल होते हैं। ये छद्मस्थ को दृष्टिगोचर होते हैं तथा इन्हें काटा, भेदा, छेदा एवं रोका जा सकता है। हमें पृथ्वीकायिक आदि जीवों का बादर भेद ही दिखाई देता है, सूक्ष्म नहीं। बादर एवं सूक्ष्म जीव भी पुनः दो-दो प्रकार के होते हैं-१. पर्याप्तक एवं २. अपर्याप्तक। जो जीव अपनी आहार, शरीर, इन्द्रिय एवं श्वासोच्छ्वास पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेते हैं वे पर्याप्तक कहलाते हैं तथा जो इन पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाए हों उन्हें अपर्याप्तक कहते हैं। इस प्रकार पृथ्वीकायिक, अप्कायिक आदि एकेन्द्रिय जीव चार-चार प्रकार के होते हैं, यथा-अपर्याप्तक सूक्ष्म, पर्याप्तक सूक्ष्म, अपर्याप्तक बादर एवं पर्याप्तक बादर। इन जीवों का अनन्तरक एवं परम्परक की दृष्टि से भी विचार किया गया है। जीव के जन्म ग्रहण करने का प्रथम क्षम अनन्तरक होता है तथा द्वितीयादि अन्य क्षण परम्परक कहलाते हैं। इस दृष्टि से अनन्तरक जीव अपर्याप्त ही होते हैं, क्योंकि प्रथम क्षण में उनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं। परम्परक जीव अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। इस दृष्टि से अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाढ़, अनन्तराहारक आदि एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म एवं बादर के अपर्याप्तक भेद वाले होते हैं, जबकि परम्परोपन्नक, परम्परावगढ़, परम्पराहारक आदि एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म एवं बादर के पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक दोनों भेद वाले होते हैं। कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी एवं कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों में भी अपर्याप्तक सूक्ष्म, पर्याप्तक सूक्ष्म, अपर्याप्तक बादर एवं पर्याप्तक बादर (चारों) भेद पाए जाते हैं। भवसिद्धिक एवं अभवसिद्धिक एकेन्द्रियों के भी ये ही चारों भेद होते हैं। इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों के दो (अपर्याप्तक सूक्ष्म एवं बादर) एवं चार भेदों का विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया है। चरम एवं अचरम एकेन्द्रियों में चारों भेद पाए जाते हैं। पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीवों में वनस्पतिकाय सबसे सूक्ष्म है तथा वही सबसे बादर भी है। वनस्पतिकाय के अनन्तर शेष रहे चार भेदों में से वायुकाय सबसे सूक्ष्म है, फिर तीन भेदों में से अग्निकाय सबसे सूक्ष्म है। पृथ्वीकाय एवं अप्काय सूक्ष्म है। बादर की अपेक्षा वनस्पतिकाय के पश्चात् शेष रहे चार भेदों में पृथ्वीकाय सबसे बादर है। फिर शेष रहे तीन भेदों में अप्काय सबसे बादर है। अग्निकाय एवं वायुकाय इन दोनों में अग्निकाय बादर है। इस प्रकार यह अपेक्षाकृत सूक्ष्म एवं बादर होने का विवेचन है। (१२५९)
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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