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________________ कर्म अध्ययन १२११ यावत् हट जाने पर तुंबा निर्लेप बंधनमुक्त होकर धरणीतल को छोड़कर जल के सतह पर आकर स्थित हो जाता है। इसी प्रकार हे गौतम ! प्राणातिपातविरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविरमण से जीव क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों का क्षय करके ऊपर आकाशतल की ओर उड़कर लोकाग्र भाग में स्थित हो जाते हैं। इस प्रकार हे गौतम ! जीव शीघ्र लघुत्व को प्राप्त करते हैं। १६९. चरमाचरम की अपेक्षा जीव-चौबीसदंडकों में महाकर्मत्वादि का प्ररूपणप्र. दं. १. भंते ! क्या नैरयिक चरम (अल्प आयु वाले) भी हैं और परम (उत्कृष्ट आयु वाले) भी हैं ? उ. हां, गौतम ! (वे चरम भी हैं और परम भी) हैं। प्र. भंते ! क्या चरम नैरयिकों से परम नैरयिक महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाश्रव वाले और महावेदना वाले हैं ? परम नैरयिकों से चरम नैरयिक अल्पकर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अल्पाश्रव वाले और अल्पवेदना वाले हैं? उ. हां, गौतम ! चरम नैरयिकों से परम नैरयिक महाकर्म वाले यावत् महावेदना वाले हैं, परभ नैरयिकों से चरम नैरयिक अल्पकर्म वाले यावत् अल्पवेदना वाले हैं। जाव विमुक्कबंधणे अहे धरणियलमइवइत्ता उप्पिं सलिलतलपइट्ठाणे भवइ। एवामेव गोयमा ! जीवा पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छदंसणसल्लवेरमणेणं अणुपुब्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ खवेत्ता 'गगणतलमुप्पइत्ता उप्पिं लोयग्गपइट्ठाणा भवंति। एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छति। -णाया. सु. १, अ.६, सु. ४-७ १६९. चरमाचरमं पडुच्च जीव चउवीसदंडएसु महाकम्मतराइ परूवणंप. द. १. अत्थि णं भंते ! चरमा वि नेरइया, परमा वि नेरइया? उ. गोयमा ! हता, अत्थि। प. से नूणं भंते ! चरिमेहिंतो नेरइएहिंतो परमा नेरइया महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महास्सवतरा चेव, महावेयणतरा चेव, परमेहंतो वा नेरइएहिंतो चरमा नेरइया अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पास्सवतरा चेव, अप्पवेयणतराचेव? उ. हंता, गोयमा ! चरमेहितो नेरइएहिंतो परमा नेरइया महाकम्मतरा चेव जाव महावेयणतरा चेव, परमेहितो वा नेरइएहिंतो चरमा नेरइया अप्पकम्मतरा चेव जाव अप्पवेयणतरा चेव। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'चरमेहिंतो नेरइएहिंतो परमा नेरइया महाकम्मतरा चेव जाव महावेयणतरा चेव, परमेहिंतो वा नेरइएहितो चरमा नेरइया अप्पकम्मतरा चेव जाव अप्पवेयणतरा चेव? उ. गोयमा ! ठिई पडुच्च। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'जाव अप्पवेयणतराचेव।' प. दं.२. अस्थि णं भंते ! चरमा वि असुरकुमारा, परमा वि असुरकुमारा? उ. गोयमा ! एवं चेव। णवरं-विवरीयं भाणियव्वं परमा अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पास्सवतरा चेव अप्पवेयणतरा चेव, चरमा महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महास्सवतरा चेव, महावेयणतरा चेव। दं.३-११.एवं जाव थणियकुमारा। दं. १२-२१. पुढविकाइया जाव मणुस्सा एए जहा नेरइया। २२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। -विया.स.१९, उ.५, सु.१-५ प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'चरम नैरयिकों से परम नैरयिक महाकर्म वाले यावत महावेदना वाले हैं और परम नैरयिकों से चरम नैरयिक अल्पकर्म वाले यावत् अल्पवेदना वाले हैं ? उ. गौतम ! स्थिति (आयु) की अपेक्षा से ऐसा कहा है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् “अल्पवेदना वाले हैं।" प्र. दं. २. भंते ! क्या असुरकुमार चरम भी हैं और परम भी हैं? उ. हां, गौतम ! वे इसी प्रकार (दोनों) हैं। विशेष-यहां पूर्वकथन से विपरीत कहना चाहिए कि परम असुरकुमार अल्प कर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अल्पाश्रव वाले और अल्पवेदना वाले हैं, चरम असुरकुमार महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाश्रव वाले और महावेदना वाले हैं। दं.३-११. इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए। दं. १२-२१. पृथ्वीकायिकों से मनुष्यों पर्यन्त नैरयिकों के समान समझना चाहिए। २२-२४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन असुरकुमारों के समान करना चाहिए।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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