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________________ १२१२ __ द्रव्यानुयोग-(२) १७0. अप्पमहाकम्माइजुत्त जीवस्स बज्झाइ पुग्गलाणं परिणमनं- १७०. अल्पमहाकर्मादि युक्त जीव के बंधादि पुद्गलों का परिणमनप. से नूणं भंते ! महाकम्मस्स महाकिरियस्स महासवस्स प्र. भंते ! क्या निश्चय ही महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महावेयणस्स महाश्रव वाले और महावेदना वाले जीव के सव्वओ पोग्गला बंज्झंति, सर्वतः (सब दिशाओं से) पुद्गलों का बन्ध होता है? सव्वओ पोग्गला चिज्जति, सर्वतः पुद्गलों का चय होता है? सव्वओ पोग्गला उवचिज्जति, सर्वतः पुद्गलों का उपचय होता है ? सया समितं च णं पोग्गला बझंति, सदा सतत पुद्गलों का बन्ध होता है ? सया समितं पोग्गला चिज्जति, सदा सतत पुद्गलों का चय होता है ? सया समितं पोग्गला उवचिज्जति, सदा सतत पुद्गलों का उपचय होता है? सया समितं च णं तस्स आया दुरूवत्ताए दुवण्णत्ताए क्या सदा निरन्तर उसकी आत्मा दुरूपता, दुर्वर्णता, दुगंधत्ताए दुरसत्ताए दुफासत्ताए अणिट्ठत्ताए दुर्गन्धता, दुःरसता, दुःस्पर्शता, अनिष्टता, अकान्तता, अकंतत्ताए अप्पियत्ताए असुभत्ताए अमणुण्णत्ताए अप्रियता, अशुभता, अमनोज्ञता, अमनामता, अनिच्छयता, अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए, अधमता, अनूचंता, दुःखता, असुखता के रूप में बार-बार अहत्ताए, नो उड्ढत्ताए, दुक्खत्ताए, नो सुहत्ताए परिणत होता है? भुज्जो-भुज्जो परिणमइ? उ. गोयमा ! महाकम्मस्स जाव सव्वओ पोग्गला उ. हां, गौतम ! महाकर्मादि वाले जीव के यावत् सर्वतः पुद्गलों उवचिज्जंति जाव नो उड्ढत्ताए, दुक्खत्ताए, नो का उपचय होता है यावत् अनूचंता, दुःखता, असुखता के सुहत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ। रूप में बार-बार परिणत होता है। प. सेकेणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि - "महाकम्मस्स जाव सव्वओ पोग्गला उवचिज्जंति जाव “महाकर्मादि वाले, जीव के यावत् सर्वतः पुद्गलों का नो उड्ढत्ताए, दुक्खत्ताए, नो सुहत्ताए भुज्जो-भुज्जो उपचय होता है यावत् अनूचंता, दुःखता और असुखता के परिणमइ?" रूप में बार-बार परिणत होती है? उ. गोयमा ! से जहानामए वत्थस्स अहतस्स वा, धोतस्स उ. गौतम ! जैसे कोई आहत (जो न पहना गया) (धौत) धोया वा,तंतुग्गतस्स वा आणुपुव्वीए परिभुज्जमाणस्स हुआ, तन्तुगत करधे से बुनकर उतरा हुआ वस्त्र क्रमशः सव्वओ पोग्गला बज्झंति जाव परिणमंति। उपयोग में लिया जाता है, तो उसके पुद्गल सब ओर से बंधते हैं यावत् परिणत हो जाते हैं अर्थात् कालान्तर में वह वस्त्र मसौते जैसे अत्यन्त मैला और दुर्गन्धित रूप में परिणत हो जाता है। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"महाकम्मस्स जाव सव्वओ पोग्गला उवचिजंति जाव "महाकर्मादि वाले जीव के यावत् सर्वतः पुद्गलों का नो उड्ढत्ताए, दुक्खत्ताए, नो सुहत्ताए भुज्जो-भुज्जो उपचय होता है यावत् अनूचंता, दुःखता और असुखता के परिणमंति।" रूप में बार-बार परिणत होता है। से नूणं भंते ! अप्पकम्मस्स अप्पकिरियस्स अप्पासवस्स प्र. भंते ! क्या निश्चय ही अल्पकर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अप्पवेयणस्स अल्प-आश्रव वाले और अल्पवेदना वाले जीव के सव्वओ पोग्गला भिज्जति, सर्वतः पुद्गल भिन्न हो जाते हैं ? सव्वओ पोग्गला छिज्जति, सर्वतः पुद्गल छिन्न होते हैं ? सव्वओ पोग्गला विद्धंसंति, सर्वतः पुद्गल विध्वस्त होते हैं ? सव्वओ पोग्गला परिविद्धंसंति, सर्वतः पुद्गल समग्ररूप से ध्वस्त होते हैं ? सया समितं पोग्गला भिति, छिज्जंति, विद्धंसंति क्या सदा सतत पुद्गल भिन्न, छिन्न, विध्वस्त और परिविद्धंसंति, परिविध्वस्त होते हैं? सया समितं च णं तस्स आया सुरूवत्ताए' जाव क्या सदा निरन्तर उसकी आत्मा यावत् सुखरूप और सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमइ ? अदुःखरूप में बार-बार परिणत होती है? १. पसत्यं नेयव्य-महाकर्म में दुरूपता यावत् दुखतर का कथन किया किन्तु यहां विलोम शब्द सुरूपता यावत् सुखरूपता आदि ग्रहण करें।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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