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________________ १२१० द्रव्यानुयोग-(२) उ. गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता,तं जहा १. मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नगा य, २. अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नगा य। १. तत्थ णं जे से मायिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नए नेरइए से णं महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव, २. तत्थ णं जे से अमायिसम्मद्दिट्ठिउववन्नए नेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव। दं.२-११.एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा। उ. गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा १. मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक, २. अमायी-सम्यग्दृष्टि उपपन्नक। १. इनमें से जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक नैरयिक है वह महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला होता है, २. इनमें से जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक नैरयिक है, वह अल्पकर्म वाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है। एवं एगिंदिय-विगलिंदियवज्जा (२०-२४) जाव वेमाणिया। (एगिंदिय विगलिंदिया महाकम्मतरागा जाव महावेयणतरागा) -विया. स.१८, उ. ५, सु. ५-७ १६८. तुंब दिळेंतेण जीवाणं गरुयत्त लहुयत्तं कारण परूवणं प. कहं णं भंते ! जीवा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छंति? उ. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एग महं तुंब णिच्छिद्दे निरुवहयं दब्भेहिं कुसेहिं वेढेइ, वेढित्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ उण्हे दलयइ दलइत्ता सुक्कं समाणं दोच्चं पि दब्भेहिं य कुसेहिं य वेढेइ वेढित्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, लिंपित्ता उण्हे सुक्कं समाणं तच्चं पि दब्भेहिं य कुसेहिं य वेढेइ वेढित्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ। एवं खलु एएणुवाएणं अंतरा वेढेमाणे, अंतरा लिंपेमाणे, अंतरा सुक्कवेमाणे जाव अट्ठहिं मट्टियालेवेहिं आलिंपइ, अत्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा। दं. २-११. इसी प्रकार (पूर्ववत्) असुरकुमारों से स्तनितकुमारों पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों को छोड़कर (२०-२४) वैमानिकों तक जानना चाहिए। (एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय महाकर्म वाले यावत् महावेदना वाले होते हैं।) १६८. तुम्व के दृष्टांत से जीवों के गुरुत्व लघुत्व के कारणों का प्ररूपणप्र. भंते ! किस कारण से जीव गुरुता और लघुता को प्राप्त करते हैं? उ. गौतम ! जैसे कोई एक पुरुष एक बड़े सूखे छिद्ररहित और अखंड तुबे को दर्भ (डाभ) से और कुश (दूब) से लपेटे और लपेटकर मिट्टी के लेप से लीपे फिर धूप में रखे और धूप में रखने से सूख जाने पर दूसरी बार दर्भ और कुश से लपेटे, लपेटकर फिर मिट्टी के लेप से लीपे, लीप कर धूप में सूख जाने पर तीसरी बार दर्भ और कुश लपेटे और लपेट कर मिट्टी का लेप चढ़ा दे। इस प्रकार इस क्रम से बीच-बीच में दर्भ और कुश लपेटते मिट्टी से लीपते और सुखाते हुए यावत् आठ मिट्टी के लेप उस तुबे पर चढ़ाते हैं। फिर अथाह (जिसे तिरा न जा सके) और अपौरुषिक (जिसे पुरुष की ऊंचाई से नापा न जा सके) जल में डाल दिया जाय तोनिश्चय ही हे गौतम ! वह तुंबा मिट्टी के आठ लेपों के कारण गुरुता एवं भारीपन को प्राप्त होकर पानी के ऊपरीतल को छोड़कर नीचे धरती के तल भाग में स्थित हो जाता है। इसी प्रकार हे गौतम ! जीव भी प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से अर्थात् अठारह पापस्थानकों के सेवन से क्रमशः आठ कर्म प्रकृतियों का उपार्जन करते हैं। उन कर्मप्रकतियों की गरु और भारीपन के कारण गुरुता और भारी होकर मृत्यु के समय मृत्य को प्राप्त कर इस पृथ्वी तल को लांघ कर नीचे नरक तल में स्थित होते हैं, इस प्रकार गौतम ! जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं। अब हे गौतम ! उस तुबे का ऊपर का मिट्टी का लेप गीला हो जाय, गल जाय और परिशिष्ट (नष्ट) हो जाय तो वह तुंबा पृथ्वीतल से कुछ ऊपर आकर ठहरता है। तदनन्तर दूसरा मृत्तिकालेप गीला हो जाय, गल जाय और हट जाय तो तुंबा पृथ्वीतल से कुछ और ऊपर ठहरता है। इसी प्रकार उन आठों मृत्तिकालेपों के गीले हो जाने पर से गूणं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवेणं गरुयत्ताए भारियत्ताए गरुयभारियत्ताए उप्पिं सलिलमइवइत्ता अहे धरणियलपइट्ठाणे भवइ। एवामेव गोयमा ! जीवा वि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ समज्जिणंति। तासिं गरुयाए भारिययाए गरुयभारिययाए कालमासे कालं किच्चा धरणियलमइवइत्ता अहे नरगतलपइट्ठाणा भवंति, एवं खलु गोयमा !जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छति। अह णं गोयमा ! से तुंबे तेसिं पढमिल्लुगंसि मट्टियालेवंसि तित्तंसि कुहियंसि परिसाडियंसि ईसिं धरणितलाओ उप्पइत्ता णं चिट्ठइ। तयाणतरं च णं दोच्चं पि मट्टियालेवे तित्तेकुहिए परिसडिए ईसिं धरणियलाओ उप्पइत्ता णं चिट्ठइ, एवं खलु एएणं उवाएणं तेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु तित्तेसु
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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