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________________ कर्म अध्ययन १६२. जीव-चउवीसदंडएसु अट्ठण्हं कम्मपगडीणं अविभाग पलिच्छेदा आवेढण परिवेढण यप. नाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! अणंताअविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता। प. द. १. नेरइयाणं भंते ! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता। दं.२-२४. एवं सव्वजीवाणं जाव वेमाणियाणं। - १२०७ ) १६२. जीय-चौबीस दंडकों में आठ कर्म प्रकृतियों के अविभाग परिच्छेद और आवेष्टन परिवेष्टनप्र. भंते ! ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं? उ. गौतम ! अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं। प्र. दं. १. भंते ! नैरयिकों में ज्ञानावरणीयकर्म के कितने ___ अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं? । उ. गौतम ! अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं। दं.२-२४. इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी जीवों में ज्ञानावरणीयकर्म के अविभाग-परिच्छेद जानना चाहिये। जिस प्रकार सभी जीवों में ज्ञानावरणीय कर्म के अविभाग-परिच्छेद कहे हैं, उसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी जीवों के अन्तराय कर्म तक आठों कर्म प्रकृतियों के अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहने चाहिए। प्र. भंते ! प्रत्येक जीव का एक एक जीवप्रदेश-ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है? उ. गौतम ! वह कदाचित् आवेष्टित-परिवेष्टित होता है कदाचित् आवेष्टित परिवेष्टित नहीं होता है। यदि आवेष्टित-परिवेष्टित होता है, तो वह नियमतः अनन्त (अविभाग परिच्छेदों) से होता है। प्र. दं.१. भंते ! प्रत्येक नैरयिक का एक-एक जीवप्रदेश जहा नाणावरणिज्जस्स अविभागपलिच्छेदा भणिया तहा अट्ठण्ह वि कम्मपगडीणं भाणियव्या जाव १-२४ वेमाणियाणं अंतराइयस्स कम्मस्स। प. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिय परिवेढिए सिया? उ.. गोयमा ! सिय आवेढिय परिवेढिए, सिय नो आवेढिय परिवेढिए। जइ आवेढिए परिवेढिए नियमा अणंतेहिं। प. दं. १. एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स एगमेगे जीवपएसेनाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिए परिवेढिए? उ. गोयमा ! नियमा अणंतेहिं। दं.२-२४.जहा नेरइयस्स एवं जाव वेमाणियस्स। दं.२१.णवरं-मणूसस्स जहा जीवस्स। प. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिय परिवेढिए? उ. गोयमा ! जहेव नाणावरणिज्जस्स तहेव दंडगो भाणियव्यो। जाव वेमाणियस्स ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है? उ. गौतम ! वह नियमतः अनन्त अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित होता है। दं. २-२४. जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए, द.२१.विशेष-मनुष्य का कथन (औधिक) जीव की तरह करना चाहिए। प्र. भंते ! प्रत्येक जीव का एक-एक-जीव-प्रदेश दर्शनावरणीयकर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है? उ. गौतम ! जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में दण्डक कहा है, उसी प्रकार यहां वैमानिक-पर्यन्त सभी दंडक कहन चाहिए। इसी प्रकार अन्तराय कर्म पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मों के लिए जिस प्रकार नैरयिक जीवों में कथन किया है, उसी प्रकार मनुष्यों के लिए भी कहना चाहिए। शेष सब वर्णन पूर्वानुसार है। एवं जाव अंतराइयस्स भाणियव्यं । णवर-वेयणिज्जस्स, आउयस्स, नामस्स, गोयस्स, एएसिं चउण्ह वि कम्माणं मणूसस्स य जहा नेरइयस्स तहा भाणियव्यं। सेसं तं चेव। -विया.स.८,उ.१०,सु.३३-४१
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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