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________________ १२०६ द्रव्यानुयोग-(२) प्र. भंते ! (पूर्व) कृत (उपार्जित) मोहनीय कर्म जब उदय में आया हो, तब क्या जीव अपक्रमण (पतन) करता है? उ. हां,गौतम ! अपक्रमण करता है। प्र. भंते ! वह बालवीर्य से, पण्डितवीर्य से या बालपण्डितवीर्य से अपक्रमण करता है? प. जीवे णं भंते ! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उदिण्णेणं अवक्कमेज्जा? उ. हंता, गोयमा ! अवक्कमेज्जा। प. से भंते ! किं बालवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा, बालपंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा? उ. गोयमा ! बालवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा, नो पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा, सिय बाल-पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा। जहा उदिण्णेणं दो आलावगा तहा उवसंतेण वि दो आलावगा भाणियव्वा। णवर-उवट्ठाएज्जा पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा बाल-पंडियवीरियत्ताए। प. से भंते ! किं आयाए अवक्कमए, अणायाए अवक्कमए? उ. गोयमा ! आयाए अवक्कमइ, णो अणायाए अवक्कमइ । प. मोहणिज्जं कम्मं वेएमाणे से कहमेयं भंते ! एवं? उ. गोयमा ! पुव्विंसे एयं एवं रोयइ इदाणिं से एयं एवं नो रोयइ, एवं खलु एयं एवं आयाए अवक्कमइ णो अणायाए अवक्कमइ। -विया. स. १, उ.४, सु.२-५ उ. गौतम ! वह बालवीर्य से अपक्रमण करता है, पण्डितवीर्य से अपक्रमण नहीं करता है, कदाचित् बालपण्डितवीर्य से अपक्रमण करता है। जैसे उदीर्ण (उदय में आए हुए) पद के साथ दो आलापक कहे गए हैं, वैसे ही "उपशान्त" पद के साथ भी दो आलापक कहने चाहिए। विशेष-यहां जीव पण्डितवीर्य से उपस्थान करता है और बालपण्डितवीर्य से अपक्रमण करता है। प्र. भंते ! क्या जीव अपने उद्यम से गिरता है या पर उद्यम से गिरता है? उ. गौतम ! अपने उद्यम से गिरता है पर के उद्यम से नहीं गिरता है। प्र. भंते ! मोहनीय कर्म को वेदता हुआ वह (जीव) क्यों अपक्रमण करता है? उ. गौतम ! पहले उसे जिनेन्द्र द्वारा कथित तत्व रुचता था और इस समय उसे इस प्रकार नहीं रुचता है। इस कारण इस समय ऐसा होता है कि अपने उद्यम से गिरता है पर-उद्यम से नहीं गिरता है। १५८.क्षीणमोही के कर्मप्रकृतियों के वेदन का प्ररूपण क्षीणमोही भगवान् (१२वें गुणस्थानवर्ती) मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं। १५९.क्षीणमोही के कर्मक्षय का प्ररूपण क्षीणमोही अर्हन्त के तीन कर्मांश (कर्मप्रकृतियां) एक साथ क्षय होते हैं, यथा१. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. अन्तराय। १६०. प्रथम समय जिन भगवन्त के कर्म क्षय का प्ररूपण प्रथम-समय जिनभगवन्त के चार कर्मांश क्षीण होते हैं, यथा १५८. खीणमोहस्स कम्मपगडीवेयण परूवणं खीणमोहे णं भगवं मोहणिज्जवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ वेएई। -सम.सम.७,सु.६ १५९.खीणमोहस्सकम्मक्खयपरूवणं खीणमोहस्स णं अरहओ तओ कम्मंसा जुगवं खिजंति, तं जहा१. णाणावरणिज्ज, २. दसणावरणिज्ज, ३. अंतराइयं। -ठाणं.अ.३, उ.४, सु. २२६ १६०. पढम समयजिणस्स कम्मक्खय परूवणं पढमसमयजिणस्स णं चत्तारि कम्मंसा खीणा भवंति, तं जहा१. णाणावरणिज्ज, २. दसणावरणिज्जं, ३. मोहणिज्जं, ४. अंतराइयं। -ठाणं.अ.४, उ.१.सु. २६८ १६१. पढम समय सिद्धस्स कम्मक्खय परूवणं पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिजंति, तं जहा१. वेयणिज्जं, २. आउयं, ३. णाम, ४. गोयं, -ठाणं.अ.४,उ.१,सु.२६८ १. ज्ञानावरणीय, ३. मोहनीय, २. दर्शनावरणीय, ४. अंतराय। १६१. प्रथम समय सिद्ध के कर्म क्षय का प्ररूपण प्रथम समय सिद्ध के चार कर्मांश एक साथ क्षीण होते हैं, यथा १. वेदनीय, ३. नाम, २. आयु, ४. गोत्र।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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