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________________ कर्म अध्ययन प. (ख) णीयागोयस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणाम पष्प कविहे अणुभावे पण्णत्ते ? उ. गोयमा ! एवं चेव । णबरं- जाइविहीणया जाये इस्सरियविहीणया । ज वेदेइ, सेस तं चैव जाव अठविहे अणुभावे पण्णत्ते। प. ८. अंतराइयस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प कइविहे अणुभावे पण्णत्ते ? उ. गोयमा ! अंतराइयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गल परिणामं पप्य पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते, तं जहा १. दाणतराए, २. लाभंतराए ४. उवभोगंतराए, ३. भोगंतराए, ५. वीरियंतराए। जं वेदेड पोग्गलं वा पोम्गले वा पोग्गलपरिणाम था. " वीससा या पोग्गलाणं परिणामं । " • तेसिं वा उदएणं अंतराइयं कम्मं वेदे । एस णं गोयमा ! अंतराइए कम्मे । एस णं गोयमा ! अंतराइयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गल परिणामं पप्प पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते । - पण्ण. प. २३, उ. १, सु. १६७९-१६८६ सिद्धान्तभागो य, अणुभागा हवन्ति । सव्वेसु वि पएसग्गं, सव्वजीवेसु इच्छियं ॥ तम्हा एएसिं कम्माणं अणुभागे वियाणिया । एएसिं संवरे चैव खवणे य जए बुहे ॥ - उत्त. अ. ३३, गा. २४-२५ उवट्ठावण जीवस्स १५७. उदिष्ण- उबसंतमोहणिज्जस्स अवक्कमणाइ परूवणं प. जीवे णं भते मोहणिजेण कडेणं कम्मेणं उदिष्ण उचट्ठाएन्जा ? उ. हंता गोयमा ! उचट्ठाएज्जा। प. से भंते! किं वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा, अवीरियत्ताए उबट्ठाएज्जा ? उ. गोयमा ! वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा, नो अवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा । प जड़ वीरियत्ताए उबट्ठाएज्जा कि बालवीरयत्ताए उवट्ठाएज्जा, पंडियवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा, बाल पंडियवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा ? उ. गोयमा ! बालवीरियताए उवद्याएजा णो पंडियबीरियत्ताए उबट्टाएज्जा, बाल- पंडियबीरियताए उबट्ठाएज्जा । णो १२०५ प्र. (ख) भंते ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके नीचगोत्रकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है ? उ. गौतम ! पूर्ववत् आठ प्रकार का है। विशेष पूर्व से विपरीत जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता रूप है। - जो पुद्गल आदि का वेदन करता है उसी प्रकार यावत् आठ प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है। प्र. ८. भंते! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके अन्तरायकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है ? उ. गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके अन्तरायकर्म का पांच प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है, यथा १. दानान्तराय, ३. भोगान्तराय, २. लाभान्तराय, ४. उपभोगान्तराय, ५. वीर्यान्तराय। जो पुद्गल का या पुद्गलों का, पुद्गल परिणाम का या स्वाभाविक पुद्गलों के परिणाम का वेदन करता है, अथवा उनके उदय से जो अन्तरायकर्म का वेदन करता है। हे गौतम! यह अन्तराय-कर्म है। हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके अन्तरायकर्म का यह पाँच प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है। कर्मों के अनुभाग सिद्धों के अनन्तवें भाग जितने हैं तथा समस्त अनुभागों का प्रदेश- परिणाम समस्त जीवों से भी अधिक है। अतः इन कर्मों के अनुभागों को जानकर बुद्धिमान् इनका संबर और क्षय करने का प्रयत्न करें। १५७. उदीर्ण-उपशांत मोहनीय कर्म वाले जीव के उपस्थापनादि का प्ररूपण प. भले (पूर्व) कृत मोहनीय कर्म जब उदीर्ण (उदय में आया) हुआ हो, तब जीव उपस्थान (परलोक की क्रिया के लिए उद्यम) करता है ? उ. हाँ, गौतम ! वह उद्यम करता है। प्र. भंते! क्या जीव सवीर्य होकर उपस्थान करता है या अवीर्य होकर उपस्थान करता है ? उ. गौतम ! जीव वीर्यता से उपस्थान करता है, अवीर्यता से उपस्थान नहीं करता है। प्र. यदि जीव वीर्यता से उपस्थान करता है, तो क्या बालवीर्यता से, पण्डितवीर्यता से या बाल-पण्डितवीर्यता से उपस्थान करता है ? उ. गौतम ! वह बालवीर्यता से उपस्थान करता है, किन्तु पण्डितवीर्यता से या बालपण्डितवीर्यता से उपस्थान नहीं करता है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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