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________________ ( १२०८ )१६३. कम्माणं पएसग्ग परिमाण परूवणं पएसग्ग खेत्तकाले य भावं चउत्तरं सुण॥ सव्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणन्तर्ग। गण्ठिय-सत्ताईयं अन्तो सिद्धाण आहियं ॥ सव्वजीवाणं कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं। सव्वेसु विपएसेसु सव्वं सव्वेण बद्धगं॥ -उत्त.अ.३३,गा.१६(२)-१८ १६४. कम्मट्ठगाणं वण्णाइ परूवणं णाणावरणिज्जे जाव अंतराइए पंच वण्णे, दुगंधे, पंच रसे, चउफासे पण्णत्ते। -विया. स. १२, उ.५, सु. २७ १६५. वत्थेसु पुग्गलोवचय दिद्रुतेण जीव-चउवीसदंडएस कम्मोवचय पखवणंप. वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए किं पयोगसा, वीससा? उ. गोयमा ! पयोगसा वि, वीससा वि। द्रव्यानुयोग-(२) १६३. कर्मों के प्रदेशाग्र-परिमाण का प्ररूपण अब इनके प्रदेशाग्र (द्रव्य परिमाण) क्षेत्र काल और भाव को सुनो। एक समय में बंधने वाले समस्त कर्मों का प्रदेशाग्र अनन्त होता है। वह परिमाण ग्रन्थिभेद न करने वाले अभव्य जीवों के अनन्तगुणा अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भाग जितना कहा गया है। सभी जीव छहों दिशाओं में रहे हुए कर्म पुद्गलों को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करते हैं। वे सभी कर्म पुद्गल आत्मा के समस्त प्रदेशों के साथ सर्व प्रकार से बद्ध हो जाते हैं। १६४.आठ कर्मों के वर्णादि का प्ररूपण ज्ञानावरणीय कर्म से अंतराय कर्म पर्यन्त पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श वाले कहे गये हैं। १६५. वस्त्र में पुद्गलोपचय के दृष्टान्त द्वारा जीव-चौबीस दंडकों में कर्मोपचय का प्ररूपणप्र. भंते ! वस्त्र में जो पुद्गलों का उपचय होता है, वह क्या प्रयोग (प्रयल) से होता है, या स्वाभाविक रूप से होता है? उ. गौतम ! वह प्रयोग से भी होता है स्वाभाविक रूप से भी होता है। प्र. भंते ! जिस प्रकार वस्त्र में पुद्गलों का उपचय प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से होता है, तो क्या उसी प्रकार जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय भी प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से होता है? उ. गौतम ! जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वाभाविक रूप से नहीं होता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'जीवों के कर्म पुद्गलों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वाभाविक रूप से नहीं?' उ. गौतम ! जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं, यथा १. मनःप्रयोग, २. वचन प्रयोग, ३. काय प्रयोग। इन तीन प्रकार के प्रयोगों से जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है किन्तु स्वाभाविक रूप से नहीं। इस प्रकार समस्त पंचेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार का प्रयोग कहना चाहिए। पृथ्वीकायिकों के एक प्रकार के (कार्य) प्रयोग से कर्मोपचय होता है। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना चाहिए। विकलेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार के प्रयोग हैं, यथा१. वचन-प्रयोग, २. काय-प्रयोग। इस प्रकार के इन दो प्रयोगों से कर्मोपचय प्रयोग से होता है, स्वाभाविक रूप से नहीं। प. जहा णं भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पयोगसा वि, वीससा वि, तहाणं जीवाणं कम्मोवचए किं पयोगसा वीससा? उ. गोयमा ! जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ___ 'जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा?' उ. गोयमा ! जीवाणं तिविहे पयोगे पण्णत्ते,तं जहा १. मणप्पयोगे, २. वइप्पयोगे, ३. कायप्पयोगे। इच्चेएणं तिविहेणं पयोगेणं जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा। एवं सव्वेसिं पंचेंदियाणं तिविहे पयोगे भाणियव्वे। पुढविकाइयाणं एगविहेणं पयोगेणं, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। विगलिंदियाणं दुविहे पयोगे पण्णत्ते,तं जहा१. वइप्पयोगे य, २. कायप्पयोगे य। इच्चेएणं दुविहेणं पयोगेणं कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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