SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११९८ उक्कोसेणं पुव्वकोडिं दोहिं मासेहिं अहियं । एवं मणुस्सा उअस्स वि । मिच्छत्तमोहणिज्जस्स जहणणेणं पलिओचमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं तं चैव पडिपुण्णं बंधति । सेसं जहा बेइंदियाणं जाय अंतराइयस्स सागरोवमसतं - पण्ण. प. २३, उ. २, सु. १७२५-१७२७ १५२. असण्णीसु पंचेंदिएसु अट्ठ कम्मपयडीणं ठिईबंध परूवणं प. १-३. असण्णी णं भंते ! जीवा पंचेंदिया णाणावर णिज्जरस कम्मरस कि बंधति ? उ. गोयमा ! जहणेणं सागरोवमसहस्सस्स तिष्णि सत्तभागे पालिऔयमस्स असंखेज्जड भागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति । एवं सो चेव गमो जहा बेइंदियाणं । णवरं - सागरोवमसहस्सेण समं भाणियव्वा जस्स जइ भाग त्ति । ४. मिच्छत्तवेयणिज्जस्स जहणणेणं सागरीयमसहस्स पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं तं चैव पडिपुणं बंधति । ५. णेरइयाउअस्स जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भइयाई, उकोसेणं पलिओवमस्स पुव्वकोडितिभागमब्भइयं बंधंति । एवं तिरिक्खजोणियाउअस्स वि। असंखेज्जइभागं नवरं जहणेणं अंतोमहुतं । एवं मणुस्साउअस्स वि । देवाउअस्स जहा णेरइयाउ अस्स । प असण्णी णं भंते ! जीवा पंचेंदिया णिरयगइणामए कम्मस्स किं बंधंति ? उ. गोयमा ! जहणेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलिओयमस्स असंखेज्जभागेणं ऊगगं उक्कोसेणं तं चैव पडिपुण्णं बंधति । एवं तिरिचगईए वि प. ६. असण्णी णं भंते! जीवा पंचेंदिया मणुयगड णाम एकम्मस्स कि बंधति ? उ. गोयमा ! जहणेणं सागरोवमसहस्सस्स दिवड्ढ सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, द्रव्यानुयोग - (२) उत्कृष्टतः दो मास अधिक पूर्व कोटी की स्थिति बांधते हैं। इसी प्रकार मनुष्यायु की भी स्थिति जाननी चाहिए। मिथ्यात्ववेदनीय जधन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सौ सागरोपम की स्थिति बांधते हैं, उत्कृष्ट वही पूर्ण सौ सागरोपम की स्थिति बांधते हैं। अन्तरायकर्म तक शेष प्रकृतियों की (सौ सागरोपम से गुणित) द्वीन्द्रियों के समान स्थिति जाननी चाहिए। १५२. असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में आठ कर्म प्रकृतियों की स्थिति बंध का प्ररूपण प्र. १-३. भंते ! असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म की कितने काल की स्थिति बांधते हैं ? उ. गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग (३/७) की स्थिति बांधते हैं, उत्कृष्ट वही पूर्ण सहस्र सागरोपम के (३/७ ) की स्थिति बांधते हैं। इस प्रकार द्वीन्द्रियों की स्थिति के जो आलापक कहे हैं वही यहाँ जानने चाहिए। विशेष- जिस की स्थिति के जितने भाग हों, उनको सहस्र सागरोपम से गुणित कहना चाहिए। ४. मिथ्यात्ववेदनीयकर्म जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम की स्थिति बांधते हैं, उत्कृष्ट वही पूर्ण सहस्र सागरोपम की स्थिति बांधते हैं। ५. नरकायुष्यकर्म जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष की स्थिति बांधते हैं, उत्कृष्ट पूर्वकोटि के विभाग अधिक पत्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति बांधते हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिका की उत्कृष्ट स्थिति भी जाननी चाहिए। विशेष - जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति बांधते हैं। इसी प्रकार मनुष्यायु की स्थिति के विषय में जानना चाहिए। देवायु की स्थिति नरकायु के समान जाननी चाहिए। प्र. भंते! असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नरकगतिनामकर्म की स्थिति कितने काल की बांधते हैं ? उ. गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र-सागरोपम के सात भागों में से दो भाग (२/७) की स्थिति बांचते हैं। उत्कृष्ट वही पूर्ण सहस्र सागरोपम की (२/७ ) की स्थिति बांधते हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिनामकर्म की स्थिति जाननी चाहिए। प्र. ६. भंते असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मनुष्यगति नाम कर्म की कितने काल की स्थिति बांधते हैं ? उ. गौतम ! जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र-सागरोपम के सात भागों में से डेढ भाग (११/२/७) की स्थिति बांधते हैं,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy