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________________ कर्म अध्ययन ११७५ अलेस्सा, केवलनाणी, अवेदका, अकसायी, अजोगी, य एएन एग पिआउयं पकरेंति, जहा ओहिया जीवा सेसं तहेव। दं. २२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। -विया. स.३०, उ. १, सु. ६५-९३ १३०. चउव्विह समोसरणेसु अणंतरोववन्नगाणं पडुच्च आउयबंधणिसेह परूवणंप. किरियावाई णं भंते ! अणंतरोववन्नगा नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति। उ. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति। एवं अकिरियावाई वि, अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई अलेश्यी, केवलज्ञानी, अवेदी, अकषायी और अयोगी ये एक भी आयु का बंध नहीं करते हैं। शेष कथन सामान्य जीवों के समान है। दं. २२-२४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक जीवों का आयु बंध असुरकुमारों के समान है। १३०. चतुर्विध समवसरणों में अनन्तरोपपन्नकों की अपेक्षा आयु बंध निषेध का प्ररूपणप्र. भंते ! क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक क्या नरकायु का बंध करते हैं यावत् देवायु का बंध करते हैं ? उ. गौतम ! वे नरकायु का बंध नहीं करते यावत् देवायु का भी बंध नहीं करते हैं, इसी प्रकार अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी अनन्तरोपपन्नकों का आयु बंध कहना चाहिए। प्र. भंते ! सलेश्य क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक क्या नरकायु का बंध करते हैं यावत् देवायु का बंध करते है ? उ. गौतम ! वे नरकायु यावत् देवायु का बंध नहीं करते हैं। इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार सभी स्थानों में अनन्तरोपपन्नक नैरयिक अनाकारोपयुक्त जीवों पर्यन्त किसी भी प्रकार का आयु बन्ध नहीं करते। इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त आयु बन्ध कहना चाहिए। विशेष-उनमें जो स्थान हैं वे सब कहने चाहिए। वि। प. सलेस्सा णं भंते ! किरियावाई अणंतरोववन्नगा नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति? उ. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति एवं जाव वेमाणिया। एवं सव्वट्ठाणेसु वि अणंतरोववन्नगा नेरइया न किंचि वि आउयं पकरेंति जाव अणागारोवउत्तत्ति। एवं जाव वेमाणिया। णवरं-जंजस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं । -विया. स.३०, उ.२,सु.५-१० १३१. परंपरोववन्नगाणं पडुच्च-चउवीसदंडएसु आउय बंध परूवणंप. किरियावाई णं भंते ! परम्परोववन्नग नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति? उ. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति। प. अकिरियावाई णं भंते ! परंपरोववन्नगा नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति? उ. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति, एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि। १३१. परम्परोपपन्नकों की अपेक्षा चौबीस दंडकों में आयु बंध का प्ररूपणप्र. भंते ! परम्परोपपन्नक क्रियावादी नैरयिक क्या नरकायु का बंध करते हैं यावत् देवायु का बंध करते हैं ? उ. गौतम ! वे नरकायु और तिर्यञ्चयोनिकायु का बंध नहीं करते, किन्तु मनुष्यायु का बंध करते हैं और देवायु का बंध नहीं करते। प्र. भंते ! परम्परोपपन्नक अक्रियावादी नैरयिक क्या नरकायु का बंध करते हैं यावत् देवायु का बंध करते हैं ? उ. गौतम ! वे नरकायु का बंध नहीं करते, तिर्यञ्चयोनिकायु का और मनुष्यायु का बन्ध करते हैं किन्तु देवायु का बंध नहीं करते हैं। इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी के विषय में समझना चाहिए। इसी प्रकार जैसे औधिक उद्देशक में कहा उसी प्रकार परम्परोपपन्नक नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त समग्र उद्देशक तीन दण्डक सहित कहना चाहिए। इसी प्रकार और इसी क्रम से बंधीशतक में उद्देशकों की जो परिपाटी है, उसी के अनुसार अचरम उद्देशक पर्यन्त यहाँ भी समझना चाहिए। विशेष-अनन्तर शब्द से युक्त चार उद्देशक एक गम (समान पाठ) वाले हैं, एवं जहेव ओहिओ उद्देसो तहेव परंपरोववन्नएसु वि नेरइयाईओ तहेव निरवसेसं भाणियब्वं, तहेव तियदंडगसंगहिओ। -विया. स. ३०, उ. ३, सु.१ एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सच्चेव इह पिजाव अचरिमो उद्देसो, णवरं-अणंतरा चत्तारि वि एक्कगमगा।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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