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________________ ( ११५० - उ. गोयमा ! आउयवज्जाओ सत्त कम्मपयडीओ बंधंति। एवं जाव अणंतरोववन्नग-बायर-वणस्सइकाइयत्ति। प. अणंतरोववन्नग-सुहुम-पुढविकाइया णं भंते ! कइ कम्मपयडीओ वेदेति? उ. गोयमा ! चोद्दस कम्मपयडीओ वेदेति, तं जहा १-१४. नाणावरणिज्जंजाव पुरिसवेदवज्झं। एवं जाव अणंतरोववन्नग-बायर-वणस्सइकाइयत्ति। -विया. स. ३३/१, उ.२, सु. ४-१० ९३. परंपरोववनगाइसु-एगिदिएसु-कम्मपयडिसामित्तं बंध वेयण परूवण यप. परंपरोववन्नग-अपज्जत्त-सुहम-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ (बंधति वेदेति)? उ. गोयमा! एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहियउद्देसए तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव चोद्दस वेदेति। -विया.स.३३/१, उ.३, सु.२ अणंतरोगाढ़ा जहा अंणतरोववन्नगा। -विया.स.३३/१,उ.४,सु.१ परंपरोगाढा जहा परंपरोववन्नगा। -विया.स.३३/१, उ.५,सु.१ अणंतराहारगा जहा अणंतरोववन्नगा। -विया.स.३३/१, उ.६, सु.१ परंपराहारगा जहा परंपरोववन्नगा। -विया. स.३३/१,उ.७,सु.१ अणंतरपज्जत्तगा जहा अणंतरोववन्नगा। -विया.स.३३/१, उ.८,सु.१ परंपरपज्जत्तगा जहा परंपरोववन्नगा। -विया.स.३३/१, उ.९, सु.१ चरिमा वि जहा परंपरोववन्नगा। -विया.स.३३/१, उ.१०,सु.१ एवं अचरिमा वि। -विया. स.३३/१, उ.११,सु.१ द्रव्यानुयोग-(२) उ. गौतम ! वे आयुकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों का बंध करते हैं। इसी प्रकार अनन्तरोपपन्नकबादरवनस्पतिकायिक पर्यन्त बंध करते हैं। प्र. भंते ! अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ? उ. गौतम ! वे चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, यथा १-१४. ज्ञानावरणीय यावत् पुरुषवेदावरण। इसी प्रकार अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकाय-पर्यन्त वेदन करते हैं। ९३. परंपरोपपन्नकादि एकेन्द्रिय जीवों में कर्मप्रकृतियों के स्वामित्व, बंध और वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! परंपरोपपन्नक अपर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं और वे कितनी कर्मप्रकृतियां बांधते हैं और वेदते हैं? उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्वोक्त औधिक (प्रथम) उद्देशक के अभिलापानुसार चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं पर्यन्त समग्र कथन करना चाहिए। अनन्तरावगाढ एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। परम्परावगाढ एकेन्द्रिय का कथन परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। अनन्तराहारक एकेन्द्रिय का कथन अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। परम्पराहारक एकेन्द्रिय का कथन परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। अनन्तरपर्याप्तक एकेन्द्रिय का कथन अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। परम्परपर्याप्तक एकेन्द्रिय का कथन परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। चरम एकेन्द्रिय का कथन परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। इसी प्रकार अचरम एकेन्द्रिय-सम्बन्धी कथन भी जानना चाहिए। ९४. लेश्या की अपेक्षा एकेन्द्रियों में स्वामित्व बंध और वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्वोक्त औधिक उद्देशक के अभिलापानुसार कर्मप्रकृतियाँ कही गई हैं वैसे ही बांधते हैं और वेदन करते हैं। प्र. भंते ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्वोक्त औधिक अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अभिलापानुसार कर्मप्रकृतियां कही गई हैं वैसे ही बांधत हैं और वेदन करते हैं। ९४. लेस्सं पडुच्च एगिदिएसु सामित्त बंध-वेयण परूवणं य प. कण्हलेस्स-अपज्जत्त-सुहम-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहियउद्देसए पण्णताओ तहेव बंधति, वेदेति। -विया. स. ३३/२, उ.१, सु. ४-६ प. अणंतरोववन्नग-कण्हलेस्स-सुहुम-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिओ अणंतरोववन्नगाणं उद्देसओ पण्णत्ताओ तहेव बंधति वेदेति। -विया. स.३३/२, उ.२,सु.२
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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