SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म अध्ययन प. परंपरोववन्नग-कण्हलेस्स-अपज्जत्त-सुहुम पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ परंपरोववन्नग उद्देसओ पण्णत्ताओ तहेव बंधति वेदेति। -विया. स. ३३/२, उ.३, सु.२ एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिए एगिंदियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया तहेव कण्हलेस्सए वि भाणियव्या जाव अचरिमकण्हलेस्सा एगिंदिया। -विया. स.३३/२, उ. ४-११,सु.१ जहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्सेहिं विसयं भाणियव्वं । -विया. स.३३/३, उ.१-११,सु.१ । ११५१ ) प्र. भंते ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्वोक्त औधिक परम्परोपपन्नक उद्देशक के अभिलापानुसार कर्मप्रकृतियाँ कही गई है वैसे ही बांधते हैं और वेदन करते हैं। औधिक एकेन्द्रियशतक में जिस प्रकार ग्यारह उद्देशक कहे, उसी प्रकार इस अभिलापानुसार अचरम कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय पर्यन्त कृष्णलेश्यीशतक में भी कहने चाहिए। जैसे कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय शतक में कहा वैसे ही नीललेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के लिए भी समग्र शतक का कथन करना चाहिए। इसी प्रकार कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के लिए भी समग्र शतक कहना चाहिए। विशेष-"कापोत लेश्या" यह कथन करना चाहिए। एवं काउलेस्सेहिं वि सयं भाणियव्यं, प्र. भंते ! भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्वोक्त प्रथम एकेन्द्रियशतक के अभिलापानुसार यहां भवसिद्धिकशतक भी कहना चाहिए। अचरम उद्देशक पर्यन्त उद्देशकों की परिपाटी भी पूर्ववत् है। णवरं-“काउलेस्स"त्ति अभिलावो। -विया.स.३३/४, उ.१-११,सु.१ प. भवसिद्धीय-अपज्जत्त-सुहम-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा! एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमिल्लं एगिंदियसयं तहेव भवसिद्धीयसयं पि भाणियव्यं। उद्देसगपरिवाडी तहेव जाव अचरिम त्ति। -विया. स.३३/५, उ. १-११, सु.२ प. कण्हलेस्स-भवसिद्धीय अपज्जत्त-सुहुम-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहियउद्देसए पण्णत्ताओ तहेव बंधंति वेदेति। -विया. स.३३/६, उ.१-११, सु.६ प. अणंतरोववन्नग कण्हलेस्स भवसिद्धीय सुहम पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ अणंतरोववन्नगो उद्देसओ पण्णत्ताओ तहेव बंधंति वेदेति। प्र. भंते ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्वोक्त औधिक उद्देशक के अभिलापानुसार कर्मप्रकृतियां कही गई हैं वैसे ही बांधते हैं और वेदन करते हैं। प्र. भंते ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथ्वीकायिकों में कितनी कर्म प्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्वोक्त औधिक अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अभिलापानुसार कर्मप्रकृतियां कही गई है वैसे ही बांधते हैं और वेदन करते हैं। इसी प्रकार औधिक एकेन्द्रिय शतक के अभिलापानुसार अचरम पर्यन्त ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए। एवं एएणं अभिलावेणं एक्कारस वि उद्देसगा तहेव भाणियव्वा जहा ओहियसए जाव अचरिमो त्ति। -विया. स. ३३/६, उ. १-११, सु. १०-११ जहा कण्हलेस्सभवसिद्धीए सयं भणियं एवं नीललेस्सभवसिद्धीएहिं वि सयं भाणियव्वं, -विया. स.३३/७, उ.१-११,सु.१ एवं काउलेस्सभवसिद्धीएहिं वि सयं भाणियव्वं । -विया. स.३३/८, उ.१-११,सु.१ एवं अभवसिद्धिएहिं वि जहेव भवसिद्धीयसयं, नवरं नव उद्देसगा, चरिम-अचरिमोद्देसगवज्ज। सेसं तहेव। -विया.स.३३/९, उ.१-९,सु.१ एवं कण्हलेस्स अभवसिद्धीयएगिदिएहिं वि सयं भाणियव्वं, -विया. स.३३/१०.उ.१-९, सु.१ जिस प्रकार कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों का शतक कहा, उसी प्रकार नीललेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों का शतक भी कहना चाहिए। इसी प्रकार कापोतलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों का शतक भी कहना चाहिए। जिस प्रकार भवसिद्धिक शतक कहा उसी प्रकार चरमअचरम उद्देशक को छोड़कर अभवसिद्धिक शतक के नी उद्देशक कहने चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए। इसी प्रकार कृष्णलेश्यी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक भी कहना चाहिए।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy