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________________ ११४४ २. दोसेण य १. रागेण य, रागे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा २. लोभे य । १. माया य, दोसे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा१. कोहे य, २. माणे य इच्चेएहिं चउहि ठाणेहिं वीरिओयग्गहिएहिं एवं खलु जीवे नाणावरणिज्जं कम्मं बंधइ । दं. १-२४. एवं णेरइए जाव वेमाणिए । प. जीवा णं भंते ! नाणावरणिज्जं कम्मं कइहिं ठाणेहिं बंधति ? उ. गोयमा ! दोहिं ठाणेहिं, एवं चेव । १ दं. १-२४. एवं नेरइया जाव बेमाणिया । एवं दंसणावर णिज्जं जाय अंतराइयं । एवं एए एगत्त- पोहत्तिया सोलस दंडगा । - पण्ण. प. २३, उ. १, सु. १६७०-१६७४ ८४. उपवरजणं पहुच्च एगिंदिए कम्मबंध परूवणं प. एगिंदिया णं भंते ! किं १. तुल्लट्ठिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, २. तुल्लट्ठिईया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, ३. वेमायट्ठिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, ४. वेमायट्ठिईया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? उ. गोयमा ! १. अत्थेगइया तुल्लट्ठिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, २. अत्थेगइया तुल्लट्ठिईया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, ३. अत्थेगइया वेमायट्ठिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेति, ४. अत्थेगइया वेमायट्ठिईया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति । प. से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ " अत्थेगइया तुल्लट्ठिईया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति जाव अत्येगइया वेमायविईया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? उ. गोयमा ! एगिंदिया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहां१. अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, १. जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं बंधंति, तं जहारागेण चेव, दोसेण चेव । -ठाणं. अ. २, उ. ४, सु. १०७/२ द्रव्यानुयोग - (२) १. राग से, २. द्वेष से । राग दो प्रकार का कहा गया है, यथा१. माया, २. लोभ, द्वेष भी दो प्रकार का कहा गया है, यथा१. क्रोध, २. मान । इसी प्रकार वीर्य से उपार्जित इन चार स्थानों (कारणों) से जीव ज्ञानावरणीयकर्म का बंध करता है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. भंते बहुत से जीव कितने कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म का बंध करते हैं ? उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्ववत् दो कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म का बंध करते हैं। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक समझना चाहिए। इसी प्रकार दर्शनावरणीय से अन्तरायकर्म तक (कर्मबन्ध के ये ही कारण समझने चाहिए।) इसी प्रकार एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा ये सोलह दण्डक होते हैं। ८४. उत्पत्ति की अपेक्षा एकेन्द्रियों में कर्मबन्ध का प्ररूपण प्र. भंते! १. एकेन्द्रिय जीव तुल्य स्थिति वाले होते हैं और तुल्य विशेषाधिककर्म का बन्ध करते हैं ? २. तुल्य स्थिति वाले होते हैं और विषम विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं। ३. विषम स्थिति वाले होते हैं और तुल्य-विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं ? ४. विषम स्थिति वाले होते हैं और विषम विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं ? उ. गौतम ! १. कई एकेन्द्रिय जीव तुल्य स्थिति वाले होते हैं और तुल्य विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं, २. कई तुल्य स्थिति वाले होते हैं और विषम विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं, ३. कई विषम स्थिति वाले होते हैं और तुल्य-विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं, ४. कई विषम स्थिति वाले होते हैं और विषम विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं। प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कई तुल्यस्थिति वाले तुल्य विशेषाधिक कर्म का बंध करते हैं यावत् कई विषम स्थिति वाले विषम विशेषाधिक कर्म का बन्ध करते हैं ? उ. गौतम ! एकेन्द्रिय जीव चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. कई जीव समान आयु वाले और एक साथ उत्पन्न होने वाले हैं,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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