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________________ ११२८ ६७. कम्मट्ठगाणं तिविहबंधभेचा घडवीसदंडएमु य पसवर्ण प. णाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मरस कइविहे बंधे पण्णत्ते ? उ. गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा १. जीवपयोगबंधे, २. अणंतरबंधे, ३ परंपरबंधे। प. बं. १ नेरइयाणं भंते ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कइविहे बंधे पण्णते ? उ. गोयमा ! एवं चेव ! पं. २-२४. एवं जाय वेमाणियाण एवं जाव अंतराइयस्स । - विया. स. २०, उ.७, सु. ४-७ ६८. णाणावरणिज्जाइ कम्म उदए बंधभेयतिग चउवीसदंडएसु य परूयणं प णाणावर णिज्जोदयस्स णं भंते! कम्मस्स कदविहे बंधे पण्णले ? गोयमा तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा १. जीवप्पयोगबंधे, २. अणंतरबंधे, ३ . परंपरबंधे। द. १ एवं नेरइयाण वि दं. २ २४ एवं जाव माणियाणं । एव जाव अंतराइ ओदयस्स - विया स. २०, उ. ७, सु. ८-११ ६९. चउवीसदंडएसु दंसणचरित्तमोहणिज्ज कम्मस्स बंध-परूवणंप. दसणमोहणिजस्स णं भंते! कम्मस्स कडविहे बंधे पण्णत्ते ? उ. गोयमा तिथिहे बंधे पण्णत्ते तं जहा " १. जीवप्पयोग बंधे, २. अणंतरबंधे, ३ परंपरबंधे। दं. १ २४ एवं निरन्तरं जाव वैमाणियाणं । दं. १ २४ एवं चरितमोहनजस्स वि जाव माणियाणं । - विया. स. २०, उ. ७, सु. १६-१८ ७०. इंदियवसट्ट-जीवाणं कम्मबंधाइ परूवणं प. सोइंदियवसट्टेणं भंते! जीवे किं बंधइ, किं पकरेइ, किं चिणाइ, किं उवचिणाइ ? उ. गोयमा ! सोइंदियवसट्टे णं जीवे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ घणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालदियाओ दीहकालठ्ठियाओ पकरेड. मंदाणुभागाओ तिव्वाणुभागाओ पकरेइ. अप्पपदेसग्गाओ बहुप्पदेसग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, द्रव्यानुयोग - ( २ ) ६७. अष्ट कर्मों के त्रिविध बन्ध भेद और चौबीस दंडकों में प्ररूपण प्र. भंते ! ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! वह बन्ध तीन प्रकार का कहा गया है, यथा१. जीवप्रयोगबन्ध, ३. अनन्तरबन्ध, ३. परम्परबन्ध । प्र. दं. १ भंते! नैरयिकों के ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! पूर्ववत् (विविध बन्ध होता है)। दं. २- २४ इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त (बन्ध) समझना चाहिए। इसी प्रकार (दर्शनावरणीय से) अन्तराय कर्म तक के बन्ध के विषय में जानना चाहिए। ६८. उदयप्राप्त ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के त्रिविधबंध भेद और चौबीस दंडकों में प्ररूपण प्र. भंते! उदयप्राप्त ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! वह तीन प्रकार का कहा गया है, यथा १. जीवप्रयोगबन्ध, २. अनन्तरबंध, ३ . परंपरबंध । दं. १ इसी प्रकार नैरयिकों के विषय में भी जान लेना चाहिए। दं. २-२४ इसी प्रकार वैमानिकों तक भी जान लेना चाहिए। इसी प्रकार उदयप्राप्त (दर्शनावरणीय से) अन्तराय कर्म तक के विषय में भी कहना चाहिए। ६९. चौबीस दंडकों में दर्शन- चारित्रमोहनीयकर्म की बंध प्ररूपणाप्र. भंते ! दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! तीन प्रकार कहा गया है, यथा १. जीवप्रयोग बंध, ३. अनन्तर बंध, ३. परम्पर बंध। दं. १ २४ इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त निरन्तर बन्ध-कथन करना चाहिए। दं. १ २४ इसी प्रकार चारित्रमोहनीय के बन्ध के विषय में भी वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। ७०. इन्द्रियवशात जीवों के कर्मबंधादि का प्ररूपण प्र. भते । श्रोत्रेन्द्रियवशात जीव कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध, उपार्जन, चय और उपचय करता है ? उ. गौतम ! श्रोत्रेन्द्रियवशार्त जीव आयुकर्म को छोड़कर शिथिल बन्धन बद्ध शेष सात कर्म प्रकृतियों को गाढ बंधन से बद्ध करता है, अल्प काल वाली स्थिति को दीर्घकाल वाली स्थिति करता है, मन्द अनुभाव को तीव्र अनुभाव वाला करता है, अल्प प्रदेशाग्र को बहु प्रदेशाग्र वाला करता है, आयु कर्म को कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता है,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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