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________________ कर्म अध्ययन ५०. चरिमाणं चउवीसदंडएसु पावकम्माइणं बंधभंगाप. चरिमेणं भंते ! णेरइए पावं कम्म किं बंधी,बंधइ,बंधिस्सइ जाव बंधी,न बंधइ,न बंधिस्सइ? उ. गोयमा ! एवं जहेव परम्परोववण्णएहिं उद्देसो तहेव चरिमेहिं णिरवसेसं। -विया. स.२६, उ.१०, सु.१ ५१. जीव-चउवीसदंडएसु य पावकम्मं अट्ठकम्माण य करिंसु आई भंगाप. जीवे णं भंते ! पावं कम्म-१. किं करिसु, करेइ, करिस्सइ, २. करिंसु, करेइ,न करिस्सइ, ३. करिंसु, न करेइ, करिस्सइ, ४. करिंसु, न करेइ, न करिस्सइ? उ. गोयमा !१.अत्थेगइए करिंसु, करेइ, करिस्सइ, २. अत्थेगइए करिंसु, करेइ, न करिस्सइ, ३. अत्थेगइए करिंसु, न करेइ, करिस्सइ, ४. अत्थेगइए करिंसु, न करेइ, न करिस्सइ। १११७ ५०. चौबीसदंडकों में चरिमों के पापकर्मादि के बंध भंगप्र. भंते ! क्या चरम नैरयिक ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा वित् बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा? उ. गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक (तृतीय) उद्देशक कहा उसी प्रकार चरम के लिए भी यह समग्र उद्देशक कहना चाहिए। ५१. जीव-चौबीसदंडकों में पापकर्म और अष्टकों के किये थे आदि भंगप्र. भंते ! १. क्या जीव ने पापकर्म किया था, करता है और करेगा? २. किया था, करता है और नहीं करेगा? ३. किया था, नहीं करता है और करेगा? ४. किया था, नहीं करता है और नहीं करेगा? उ. गौतम ! १. किसी जीव ने पापकर्म किया था, करता है और करेगा। २. (किसी जीव ने) किया था, करता है और नहीं करेगा। ३. (किसी जीव ने) किया था, नहीं करता है और करेगा। ४. (किसी जीव ने) किया था, नहीं करता है और नहीं करेगा। प्र. भंते ! सलेश्य जीव ने पापकर्म किया था, करता है और करेगा यावत् किया था, नहीं करता है और नहीं करेगा? । उ. गौतम ! बन्धीशतक के कथन के अनुसार यहाँ भी इसी अभिलाप से समग्र कथन करना चाहिए। उसी प्रकार नौ दण्डकसहित ग्यारह उद्देशक भी यहाँ कहने चाहिए। ५२. जीव-चौबीसदण्डकों में पापकर्म और अष्ट कर्मों का समर्जन-समाचरणप्र. भंते ! जीवों ने किस गति में पापकर्म का समर्जन (ग्रहण) किया था और किस गति में आचरण किया था? उ. गौतम ! १. सभी जीव तिर्यञ्चयोनिकों में थे। २. अथवा तिर्यञ्चयोनिकों और नैरयिकों में थे, ३. अथवा तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में थे, ४. अथवा तिर्यञ्चयोनिकों और देवों में थे, ५. अथवा तिर्यञ्चयोनिकों, नैरयिकों और मनुष्यों में थे, प. सलेस्से णं भंते ! जीवे.पावं कम्म किं करिसु, करेइ, करिस्सइ जाव करिंसु, न करेइ, न करिस्सइ? उ. गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं, जच्चेव बंधिसए बत्तव्वया सच्चेव निरवसेसा भाणियव्वा, तह चेव नवदंडगसहिया एक्कारस उद्देसगा भाणियव्या। -विया. स. २७, उ.१-११,सु.१-२ ५२. जीव-चउवीसदंडएसु पावकम्मं अट्ठकम्माण य समज्जणं समायरणं यप. जीवा णं भंते ! पावंकम्म कहिं समज्जिणिंसु, कहिं समायरिंसु? उ. गोयमा ! १. सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा, २. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य होज्जा, ३. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणुस्सेसु य होज्जा, ४. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होज्जा, ५. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य मणुस्सेसु य होज्जा, ६. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य देवेसु य होज्जा, ७. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा, ६. अथवा तिर्यञ्चयोनिकों, नैरयिकों और देवों में थे, ७. अथवा तिर्यञ्चयोनिकों, मनुष्यों और देवों में थे,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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