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________________ १११८ ८. अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा। प. सलेस्सा णं भंते !जीवा पावकम्म कहिं समज्जिणिंसु, कहिं समायरिंसु? उ. गोयमा !एवं चेव। ३.एवं कण्हलेस्सा जाव अलेस्सा। ४. कण्हपक्खिया सुक्कपक्खिया एवं जाव ५-११ अणागारोवउत्ता। प. द.१.नेरइया णं भंते ! पावं कम्म कहिं समज्जिणिंसु, कहिं समायरिंसु? उ. गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएस होज्जा, एवं चेव अट्ठ भंगा भाणियव्या। एवं सव्वत्थ अट्ठ भंगा जाव अणागारोवउत्ता। द्रव्यानुयोग-(२) ८. अथवा तिर्यञ्चयोनिकों, नैरयिकों, मनुष्यों और देवों में थे। (तब उन-उन गतियों में उन्होंने पापकर्म का समर्जन और समाचरण किया था।) प्र. भंते ! सलेश्य जीवों ने किस गति में पापकर्म का समर्जन किया था और किस गति में समाचरण किया था? उ. गौतम ! पूर्ववत् (यहाँ सभी भंग पाये जाते हैं।) ३. इसी प्रकार कृष्णलेश्यी जीवों से लेकर अलेश्य जीवों तक के विषय में भी कहना चाहिए। ४. कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक से अनाकारोपयुक्त तक इसी प्रकार का कथन करना चाहिए। प्र. दं.१.भंते ! नैरयिकों ने पापकर्म का कहाँ समर्जन और कहाँ समाचरण किया था? उ. गौतम ! सभी जीव तिर्यञ्चयोनिकों में थे इत्यादि पूर्ववत् आठों भंग यहाँ कहने चाहिए। इसी प्रकार सर्वत्र अनाकारोपयुक्त तक आठ-आठ भंग कहने चाहिए। द.२-२४. इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त प्रत्येक के आठ-आठ भंग जानने चाहिए। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय के विषय में भी आठ-आठ भंग कहने चाहिए। (दर्शनावरणीय से) यावत् अन्तरायकर्म तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इस प्रकार जीव से वैमानिक पर्यन्त ये नौ दण्डक होते हैं। दं.२-२४ एवं जाव वेमाणियाणं। एवं णाणावरणिज्जेण वि दंडओ। एवं जाव अंतराइएणं। एवं एए जीवाईया वेमाणियपज्जवसाणा नव दंडगा भवंति। -विया. स. २८, उ.१, सु.१-१० ५३. अणंतरोववन्नगाइसुचउवीसदंडएसु पावकम्म-अट्ठ कम्माण यसमज्जणं समाचरणं यप. दं.१.अणंतरोववन्नगाणं भंते ! नेरइया पावं कम कहिं समज्जिणिंसु, कहिं समायरिंसु? उ. गोयमा ! सव्ये वि ताव तिरिक्खजोणिएस होज्जा, एवं एत्य वि अट्ठ भंगा। एवं अणंतरोववन्नगाणं नेरइयाईणं जस्स णं अत्थि लेस्साईयं अणागारोवयोगपज्जवसाणं तं सव्यं एयाए भयणाए भाणियव्यं जाव २-२४ वेमाणियाणं। ५३. अनंतरोपपन्नकादि चौबीसदंडकों में पापकर्म और अष्ट कर्मों का समर्जन समाचरणप्र. दं.१.भंते ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिकों में पाप कर्मों का कहाँ समर्जन किया था और कहां समाचरण किया था? उ. गौतम ! वे सभी तिर्यञ्चयोनिकों में थे, इत्यादि पूर्वोक्त आठों भंगों का यहाँ कथन करना चाहिए। इसी प्रकार अनन्तरोपपन्नक नैरयिकों में लेश्या आदि से लेकर अनाकारोपयोग पर्यन्त भंगों में से जिसमें जो भंग पाया जाता हो, वह सब भजना (विकल्प से) द.२-२४. वैमानिकों तक कहना चाहिए। विशेष-अनन्तरोपपन्नकों में जो-जो पद छोड़ने योग्य हैं उन-उन पदों को बन्धीशतक के अनुसार यहाँ भी छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के दंडक जानना चाहिए। इसी प्रकार अन्तरायकर्म तक समग्र वर्णन करना चाहिए। नौ दण्डक सहित इनका भी पूरा उद्देशक कहना चाहिए। णवर-अणंतरेसु जे परिहरियव्वा ते जहा बंधिसए तहा इह पि। एवं णाणावरणिज्जेण वि दंडओ। एवं जाव अंतराइएणं निरवसेस। एस वि नवदंडगसंगहिओ उद्देसओ भाणियव्यो। -विया.स.२८, उ.२,सु.१-४
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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