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________________ ११०४ ३. पढमसमय बेइंदिय निव्वत्तिए, ४. अपढम समय बेइंदिय निव्वत्तिए, ५. पढम समय तेइंदिय निव्वत्तिए, ६. अपढम समय तेइंदिय निव्वत्तिए, ७. पढम समय चउरिंदिय निव्वत्तिए, ८. अपढम समय चउरिंदिय निव्वत्तिए, ९. पढम समय पंचेंदिय निव्वत्तिए, १०. अपढम समय पंचेंदिय निव्वत्तिए। एवं उवचिण-बंध-उदीरण-वेयण तह निज्जरणं चेव। -ठाणं. अ.१०, सु.७८३ ३२. असंजयाइ जीवस्स पाव कम्म बंध परूवणंप. जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहय पच्चक्खायपाव कम्म सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते पावकम्म अण्हाइ? उ. हंता, गोयमा ! अण्हाइ। प. जीवे णं भंते ! असंजए जाय एगंतसुत्ते मोहणिज्जं पावकम्म अण्हाइ? उ. हंता, गोयमा ! अण्हाइ। -उव. सु.६४-६५ ३३. पावकम्माणं उदीरणाइ णिमित्त परूवणं जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं उदीरेंति,तं जहा१. अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, २. उवक्कमियाए चेव वेयणाए। जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावंकम्मं वेदेति,तं जहा१. अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, २. उवक्कमियाए चेव वेयणाए। जीवाणं दोहिं ठाणेहिं पावंकम्मं णिज्जरेंति,तं जहा१. अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए, २. उवक्कमियाए चेव वेयणाए। -ठाण. अ. २, उ. ४, सु. १०७, ३४. जीव चउवीसदंडएसु कडाणं पावकम्माणं नाणत्तंप. जीवाणं भंते ! पावेकम्मे जे य कडे जे य कज्जइ जे य कज्जिस्सइ अस्थियाई तस्स केयि णाणते? उ. हंता, मागंदियपुत्ता ! अत्थि। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ "जीवाणं पावे कम्मे जे य कडे जे य कज्जइ जे य कज्जिस्सइ अस्थियाई तस्स णाणत्ते?" उ. मागंदियपुत्ता ! से जहानामए केइ पुरिसे धणुं परामुसइ, धणुं परामुसित्ता, उसुं परामुसइ, उसु परामुसित्ता, ठाणं ठाइ, ठाणं ठाइत्ता, आयतकण्णायतं उसुं करेइ, आयतकण्णायतं उसु करित्ता, उड्ढं वेहासं उव्विहइ। से नूणं मांगदियपुत्ता ! तस्स उसुस्स उड्ढे वेहासं उव्वीढस्स समाणस्स एयति वि णाणत्तं जाव तं भावं परिणमइ विणाणत्तं? द्रव्यानुयोग-(२) ३. प्रथम समय द्वीन्द्रिय निर्वर्तित, ४. अप्रथम समय द्वीन्द्रिय निर्वर्तित, ५. प्रथम समय त्रीन्द्रिय निर्वर्तित, ६. अप्रथम समय त्रीन्द्रिय निर्वर्तित, ७. प्रथम समय चतुरिन्द्रिय निर्वर्तित, ८. अप्रथम समय चतुरिन्द्रिय निर्वर्तित, ९. प्रथम समय पंचेन्द्रिय निर्वर्तित, १०. अप्रथम समय पंचेन्द्रिय निर्वर्तित। इसी प्रकार उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे कहना चाहिए। ३२. असंयतादि जीव के पाप कर्म बंध का प्ररूपणप्र. भंते ! असंयत, अविरत जिसने प्रत्याख्यान द्वारा पाप कर्मों का परित्याग नहीं किया है जो आरंभादि क्रियाओं से युक्त, असंवृत, एकांत दंड, एकांत बाल, एकांत सुप्त है क्या वह जीव पाप कर्मों का बंध करता है? उ. हां, गौतम ! बंध करता है। प्र. भंते ! असंयत यावत् एकांत सुप्त जीव क्या मोहनीय पाप कर्म का बंध करता है? उ. हां, गौतम ! बंध करता है। ३३. पापकर्मों के उदीरणादि के निमित्तों का प्ररूपण जीव दो स्थानों से पाप-कर्म की उदीरणा करते हैं, यथा१. आभ्युपगमिकी (स्वीकृत तपस्या आदि की) वेदना से, २. औपक्रमिकी (रोग आदि की) वेदना से। जीव दो स्थानों से पापकर्म का वेदन करते हैं, यथा१. आभ्युपगमिकी वेदना से, २. औपक्रमिकी वेदना से। जीव दो स्थानों से पापकर्म का निर्जरण करते हैं, यथा१. आभ्युपगमिकी वेदना से, २. औपक्रमिकी वेदना से। ३४. जीव चौवीसदंडकों में कृत पापकर्मों का नानात्वप्र. भंते !जीव ने जो पापकर्म किया है, करता है और करेगा क्या उनमें परस्पर नानात्व (भिन्नता) है? उ. हां, माकन्दिकपुत्र ! उनमें नानात्व है। प्र. भंते ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि "जीव ने जो पापकर्म किया है, करता है और करेगा, उनमें भिन्नता है?" उ. माकन्दिकपुत्र ! जैसे-कोई पुरुष धनुष को हाथ में लेता है धनुष को हाथ में लेकर बाण को हाथ में लेता है और बाण को हाथ में लेकर आसन विशेष से बैठता है और बैठकर बाण को कान तक खींचता है व खींचकर ऊपर आकाश में छोड़ता है। तब हे माकन्दिकपुत्र ! क्या उस आकाश में बाण के ऊपर जाते समय में भी बाण के कम्पन में नानात्व है यावत् उस उस रूप में परिणत हुए भी नानात्व है?
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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