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________________ १०९२ एवमेव जीवाईया बेमाणिया पज्जयसाणा अट्ठारस दंडगा भाणियव्या -ठाणं. अ. ८, सु. ५९६ २२. चउवीसदंडएसु चलियाचलिय कम्माणं बंधा परूवणं प. दं. १ रयाणं भंते जीवाओ. किं चलिये कम्मं बंधति अचलियं कम्म बंधति ? उ. गोयमा ! नौ चलिये कम्पं बंधति, अचलियं कम्म बंधति । एवं २. उदीरेंति, ३ वेदेंति, ४ ओयट्टेति, ५. संकामेंति, ६ . निहत्तेंति, ७. निकाएंति, सव्वेसु नो चलियं, अचलियं । प. दं. १. नेरइया णं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्मं निज्जरेंति, अचलियं कम्मं निज्जरेंति ? उ. गोयमा ! चलियं कम्मं निज्जरेंति, नो अचलियं कम्म निज्जरेंति । ' दं. २-२४. एवं जाय वैमाणियाणं । -विया. स. १, उ. १, सु. ६/९-१० २३. जीव- चउवीसदंडएसु कोहाइ चउठाणेहिं कम्मट्ठग चिणाइ परूवणं प. (१) जीवा णं भंते! कहहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिसु ? उ. गोयमा ! चउहिं ठाणेहिं अट्ठकम्मपगडीओ चिर्णिसु, तं जहा १. कोहेणं, २. माणेणं, ३. मायाए, ४. लोभेणं । दं. १-२४. एवं नेरइया जाव वेमाणिया । प. (२) जीवा णं भंते! कहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणंति ? उ. गोयमा ! चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणंति, तं जहा १. कोहेणं, २. माणेणं, ३. मायाए, ४. लोभेणं । दं. १-२४. एवं नेरइया जाव वेमाणिया । प. (३) जीवा णं भंते! कहिं ठाणेहिं अठ कम्मपगडीओ चिणिस्संति ? उ. गोयमा ! चउहिं ठाणेंहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिस्संति, तं जहा १. कोहेणं, २. माणेणं ३. मायाए ४. लोभेणं । ६. १-२४. एवं नेरड्या जाव वेमाणिया । प. (४) जीवा णं भंते ! कइहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ उवचिणिंसु? १. गाहा - बंधोदय - वेदोव्वट्ट-संकमे तह निहत्तण-निकाए । द्रव्यानुयोग - ( २ ) इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त समुच्चय जीवों में ये अट्ठारह दंडक (आलापक) कहने चाहिए। २२. चौबीस दंडकों में चलित अचलित कर्मों के बंधादि का प्ररूपण प्र. दं. १. भंते ! क्या नैरयिक जीव प्रदेशों से चलित (अस्थिर) कर्म को बांधते हैं, अचलित (स्थिर) कर्म को बांधते हैं? उ. गौतम ! वे चलित कर्म को नहीं बांधते, किन्तु अचलित कर्म को बांधते हैं। इसी प्रकार अचलित कर्म का २ उदीरण ३ वेदन ४ अपवर्त्तन ५ संक्रमण ६ निधत्तन और ७ निकाचन करते हैं। इन सब पदों में अचलित (कर्म) कहना चाहिए, चलित (कर्म) नहीं कहना चाहिए। प्र. दं. १. भंते ! क्या नैरयिक जीव प्रदेशों से चलित कर्म की निर्जरा करते हैं या अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं ? उ. गौतम ! चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते। दं. २-२४. इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त जानना चाहिए। २३. जीव - चौबीस दंडकों में क्रोधादि चार स्थानों द्वारा आठ कर्मों का चयादि प्ररूपण प्र. (१) भते जीयों ने कितने स्थानों (कारणों) से आठ-कर्म प्रकृतियों का चय किया है? उ. गौतम ! चार कारणों से आठ कर्म प्रकृतियों का चय किया है, यथा १. क्रोध से, २. मान से, ३. माया से, ४. लोभ से । दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक जानना चाहिए। प्र. (२) भंते ! जीव कितने कारणों से आठ कर्म प्रकृतियों का चय करते हैं? उ. गौतम ! चार कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का चय करते हैं, यथा १. क्रोध से, २. मान से, ३. माया से, ४. लोभ से । दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक जानना चाहिए। प्र. (३) भंते ! जीव कितने स्थानों (कारणों) से आठ कर्म प्रकृतियों का चय करेंगे? उ. गौतम ! चार कारणों से आठ कर्म प्रकृतियों का चय करेंगे, यथा १. क्रोध से, २. मान से, ३. माया से, ४. लोभ से । दं. १ २४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक जानना चाहिए। प्र. (४) भंते! जीवों ने कितने स्थानों से आठ कर्म प्रकृतियों का उपचय किया है ? अचलियं कम्मं तु भवे चलितं जीवाउ निज्जरए।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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