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________________ - १०९१ ) उ. गौतम ! आठ प्रकार की कर्मनिवृत्ति कही गई है, यथा १. ज्ञानावरणीय-कर्मनिवृत्ति यावत् ८. अन्तराय-कर्मनिवृत्ति। कर्म अध्ययन उ. गोयमा ! अट्ठविहा कम्मनिव्वत्ती पण्णत्ता,तं जहा १. नाणावरणिज्जकम्मनिव्वत्ती जाव ८. अंतराइयकम्मनिव्वत्ती। दं.२-२४. एवं जाव वेमाणियाणं। -विया. स.१९, उ.८, सु.५-७ २०. जीव चउवीसदंडएसुचेयकड कम्माणं परूवणंप. जीवाणं भंते ! किं चेयकडा कम्मा कज्जंति, अचेयकडा कम्मा कज्जति? उ. गोयमा ! जीवा णं चेयकडा कम्मा कजंति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ "जीवा णं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति?" उ. गोयमा !जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला, तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! दुट्ठाणेसु दुसेज्जासु दुन्निसेहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! आयके से वहाए होइ, संकप्पे से वहाए होइ, मरणंते से वहाए होइ, दं.२-२४. इसी प्रकार वैमानिकों तक कर्मनिवृत्ति के विषय में जान लेना चाहिए। २०. जीव चौवीसदंडकों में चैतन्यकृत कर्मों का प्ररूपणप्र. भंते ! जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं या 'अचैतन्यकृत होते हैं? उ. गौतम ! जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते हैं? प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते हैं ?' तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जीवा णं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति।" एवं नेरइयाण वि। एवं जाव वेमाणियाणं। -विया. स. १६, उ. २, सु. १७-१९ २१. जीव-चउवीसदंडएसु कम्मट्ठग चिणाइ परूवणं जीवा णं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु वा, चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा१. णाणावरणिज्जं, २. दरिसणावरणिज्ज, ३. वेयणिज्जं, ४. मोहणिज्ज,५.आउयं, ६.णाम,७.गोयं,८.अंतराइयं। दं. १.णेरइया णं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु वा, चिणंति वा, चिणिस्संति वा, तं जहा१.णाणावरणिज्जं जाव ८.अंतराइय दं.२-२४. एवं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं। एवं-उवचिण-बंध-उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव। उ. गौतम ! जीवों के आहार रूप से उपचित जो पुद्गल हैं, शरीर रूप से उपचित जो पुद्गल हैं, कलेवर रूप से जो उपचित पुद्गल हैं, वे उस-उस रूप से परिणत होते हैं, इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणों ! कर्म अचैतन्यकृत नहीं है। वे पुद्गल दुस्थान रूप से, दुःशय्या रूप से और दुःनिषद्या रूप से उस-उस रूप से परिणत होते हैं। इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणों ! कर्म अचैतन्यकृत नहीं है। वे पुद्गल आतंक रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं। वे संकल्प रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं, वे मरणान्त रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं। वे पुद्गल उन-उन रूप में परिणत होते हैं इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणों ! कर्म अचैतन्यकृत नहीं हैं। हे गौतम ! इसीलिए ऐसा कहा जाता है, कि"जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं अचैतन्यकृत नहीं होते।" इसी प्रकार नैरयिकों के कर्म भी चैतन्यकृत होते हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक के कर्मों के विषय में कहना चाहिए। २१. जीव-चौवीस दंडकों में आठ कर्मों के चयादि का प्ररूपण जीवों ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चय किया है, करते हैं और करेंगे, यथा१.ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. नाम,७. गोत्र, ८. अन्तराय। दं.१. नैरयिकों ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चय किया है, करते हैं और करेंगे, यथा१. ज्ञानावरणीय यावत् ८. अंतराय। दं.२-२४. इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए। इसी प्रकार उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे ऐसा जानना चाहिए।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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